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लड़ाई नहीं, पाक में वार्ता चाहता है अमेरिका

२४ अक्टूबर २०११

बरसों से अमेरिका का दबाव रहा है कि पाकिस्तान अपने कबायली इलाकों में चरमपंथियों के खिलाफ कार्रवाई करे. लेकिन अब उसने पाकिस्तान को और बड़ा काम सौंप दिया है और यह काम है चरमपंथियों की बातचीत की मेज तक लाना.

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*** Bild von DW-Korrespondent in Duschanbe (Tadschikistan) Galim Faskhutdinov
क्लिंटन ने माना, हक्कानी से हुई है कुछ बाततस्वीर: DW/G. Faskhutdinov

इस बात को लेकर संदेह है कि क्या पाकिस्तानी अल कायदा से जुड़े हक्कानी नेटवर्क को बातचीत में हिस्सा लेने के लिए मना सकते हैं या मनाएंगे ताकि अफगान युद्ध को खत्म किया जा सके, वह भी तब जब पाकिस्तान के उग्रवादियों से रिश्ते रहे हैं और वह क्षेत्र में अपने हितों के लिए जूझ रहा है.

"पिछवाड़े में सांप"

पिछले हफ्ते पाकिस्तान के दो दिवसीय दौरे में अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने हक्कानी नेटवर्क से पाकिस्तान के रिश्तों को "अपने पिछवाड़े में सांप पालना" बताया. उन्होंने मांग की कि पाकिस्तान अपने सीमावर्ती इलाकों में इस गुट की सुरक्षित पनाहगाह खत्म करे. हक्कानी नेटवर्क को तालिबान के सबसे खतरनाक गुटों में गिना जाता है और पिछले महीने उसने काबुल में अमेरिकी दूतावास पर हमला किया.

Pakistan USA Außenministerin Hillary Rodham Clinton bei Hina Rabbani Khar in Islamabad Flash-Galerie
अपने हालिया पाकिस्तान दौरे में क्लिंटन ने दो टूक अंदाज में बात कीतस्वीर: picture alliance/landov

लेकिन अमेरिका की ओर से भी उग्रवादियों से बातचीत की कोशिशें होती रही हैं जो अफगानिस्तान से अपने सैनिकों की निकालने की योजना पर अमल कर रहा रहा है. खुद क्लिंटन ने कहा है कि अमेरिका ने हक्कानी नेटवर्क से कुछ बातचीत की है. और अब उन्हें इसमें पाकिस्तान की मदद चाहिए. क्लिंटन के मुताबिक, "हम समझते हैं कि पाकिस्तान बहुत सी वजहों से इस स्थिति में है कि हक्कानी और अफगान तालिबान समेत आतंकवादियों को शांति प्रक्रिया में हिस्सा लेने के लिए बढ़ावा दे और उन्हें आगे लाए."

क्लिंटन के बयान का पाकिस्तान में स्वागत किया गया जहां की जनता इस लड़ाई से तंग आ चुकी है और इस बात को मानती है कि अमेरिका के नेतृत्व में चल रहा आतंकवाद विरोधी युद्ध उनका युद्ध नहीं है.

पाकिस्तान का कहना है कि उसने इस लड़ाई में किसी भी दूसरे देश से ज्यादा कुर्बानियां दी हैं. उसने 2001 से जारी युद्ध में अपने 40,000 आम लोग और सुरक्षाकर्मी खोए हैं.

बातचीत पर जोर

अमेरिका के ताजा रुख से पता चलता है कि अफगानिस्तान में उसके पास विकल्प खत्म होते जा रहे हैं. पाकिस्तान की जानी मानी रक्षा विश्लेषक आयशा सिद्दिका का कहना है, "उन्होंने तालिबान से बात करने के सिद्धांत को मान लिया है. दूसरों से बात करना एक स्वाभाविक बात है. और दूसरी बात, विकल्प क्या हैं?"

सीमा पार अफगानिस्तान में अमेरिका और नाटो की सेनाओं को तालिबान और हक्कानी नेटवर्क और उसके धड़ों से निपटते हुए 10 साल हो गए हैं लेकिन वे अब भी ताकतवर बने हुए हैं. इस युद्ध में नाटो के 2,700 सैनिक मारे गए हैं जबकि इसकी बलि चढ़ने वाले आम लोगों की संख्या 11,000 बताई जाती है. वहीं कई हजारों लोग घायल हुए हैं.

पूर्वी अफगानिस्तान में विदेशी सैनिकों को सबसे मुश्किल चुनौती का सामना करना पड़ रहा है. यह इलाका पाकिस्तान से लगने वाली सीमा के नजदीक है. नाटो उग्रवाद को बढ़ावा देने वालों के कमजोर करना चाहते हैं जिनमें पू्र्वी अफगानिस्तान में हिज्बे इस्लामी नाम का गुट भी है. पश्चिमी सैन्य गठबंधन की कोशिश है कि युद्ध के मैदान में बडी कामयाबी हासिल करने की बजाय उन्हें बातचीत की मेज तक लाया जाए.

कैसे होगी बातचीत

लेकिन यह अभी साफ नहीं है कि क्या पाकिस्तान हक्कानी नेटवर्क पर अपने असर को इस्तेमाल कर उसे बातचीत की मेज तक लाएगा क्योंकि पाकिस्तान और अमेरिका, दोनों के हित क्षेत्र में एक जैसे नहीं हैं.

हक्कानी नेटवर्क को पाकिस्तानी सुरक्षा प्रतिष्ठान और अल कायदा, दोनों के नजदीक समझा जाता है. 1980 के दशक में अफगान सोवियत युद्ध के दौरान यह गुट पाकिस्तान की अहम रणनीतिक पूंजी था और पाकिस्तान मानता है कि उसके इस गुट से संपर्क हैं.

पाकिस्तान अफगान तालिबान उग्रवादियों का इस्तेमाल कर अफगानिस्तान पर अपने असर को फिर से हासिल करना चाहता है. लेकिन अमेरिका इन उग्रवादियों को खत्म या बेअसर करना चाहता है ताकि वह 2014 के अंत तक अपने सभी सैनिकों को अफगानिस्तान से निकाल सके. इसीलिए क्लिंटन हक्कानी नेटवर्क जैसे गुटों को शांति वार्ता में शामिल करने के लिए पाकिस्तान की मदद मांग रही हैं. हालांकि हक्कानी नेटवर्क का अब तक बातचीत में शामिल होने का कोई इरादा नहीं दिखता.

रिपोर्टः रॉयटर्स/ए कुमार

संपादनः ए जमाल

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