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जन्म से पहले जांच पर नैतिकता की बहस

७ जुलाई २०१२

गर्भावस्था में बच्चे की सेहत पर नजर रखने के लिए कई तरह के टेस्ट कराए जाते हैं, लेकिन अगर टेस्ट का उद्देश्य फल, सब्जियों की तरह "परफेक्ट बेबी" बनाना हो, तो क्या यह सही है? जर्मनी इसी नैतिक बहस में उलझा है.

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तस्वीर: Fotolia/ ingenium-design.de

"आखिर हम भी इंसान हैं", बर्लिन में हुई एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में जर्मन अभिनेता सेबास्टियान उर्बांस्की ने चिल्लाते हुए यह बात कही. उर्बांस्की को गुस्सा है कि जर्मन सरकार एक ऐसे टेस्ट के लिए अनुमति देने जा रही है जिस से गर्भ में ही पता चल जाएगा कि बच्चे को डाउन सिंड्रोम है या नहीं. उर्बांस्की खुद इस सिंड्रोम के साथ जी रहे हैं. माना जा रहा है कि आने वाले कुछ दिनों में जर्मनी में खून की ऐसी जांच को स्वीकृति दे दी जाएगी. यदि ऐसा होता है तो डाउन सिंड्रोम वाले बच्चों को गर्भ में ही मार दिया जाएगा.

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अभिनेत्री लोला ड्यूनस के साथ सेबास्टियान उर्बांस्कीतस्वीर: Getty Images

जर्मनी में लंबे समय से इस विषय पर बहस छिड़ी हुई है. डॉक्टर, दवा बनाने वाली कंपनियां, कानून के जानकार, राजनेता और विकलांगों के लिए काम करने वाली संस्थाएं इस पर चर्चा करती रही हैं कि क्या ऐसा टेस्ट नैतिक और कानूनी रूप से सही है. अब विकलांगों का हित देखने वाले प्रशासनिक शिकायत जांच अधिकारी हूबेर्ट हुएपे ने बर्लिन में एक रिपोर्ट पेश की है. रिपोर्ट तैयार करने वाले कानूनी मामलों के जानकार क्लाउस फेर्डीनांड गेर्डित्ज ने लिखा है कि जन्म से पूर्व डाउन सिंड्रोम के लिए खून की जांच गैरकानूनी है. यह संविधान में दिए गए भेदभाव विरोधी कानून का उल्लंघन है और साथ ही अनुवांशिक जांच के कानून का भी.

Hubert Hüppe
रशासनिक शिकायत जांच अधिकारी हूबेर्ट हुएपेतस्वीर: picture alliance / dpa

गर्भपात को बढ़ावा

हुएपे का कहना है कि इस तरह की जांच बच्चों की जान लेने का जरिया बन जाएगी. उनके अनुसार यह चिकित्सा के सिद्धांतों के खिलाफ है, इस से "ना ही चिकित्सा में और ना ही रोगों के उपचार में मदद मिलेगी", क्योंकि डाउन सिंड्रोम का कोई इलाज ही नहीं है. उन्होंने कहा कि यह टेस्ट भेदभाव का सबसे बुरा रूप होगा. वहीं गेर्डित्ज भी का कहना है कि इस टेस्ट को केवल मुनाफा कमाने के लिए स्वीकृति दी जा रही है और इसका इलाज से कोई लेना देना नहीं है.

इस टेस्ट के लिए 1200 यूरो का खर्च आएगा और दूसरी जांचों से अलग इसमें केवल डाउन सिंड्रोम का ही नतीजा देखा जा सकेगा. आम तौर पर डॉक्टर जब अन्य जांच में किसी तरह का आनुवंशिक दोष पाते हैं तो 90 प्रतिशत मामलों में लोग गर्भपात का रास्ता चुनते हैं.

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तस्वीर: Messe Düsseldorf/ctillmann

बुनियादी सवाल

हाल ही में म्यून्स्टर के बिशप फेलिक्स गैन ने इस बात की निंदा की कि इंसान "भगवान बनने की कल्पना" रखता है और चाहता है कि जीन तक हर चीज पर उसका बस चल सके. इस से विपरीत जर्मन मेडिकल एसोसिएशन के अध्यक्ष फ्रांक उलरिष ने इस जांच का बचाव करते हुए कहा है, "हमारा समाज जन्मपूर्व जांच का समर्थन करता है." उलरिष ने कहा कि अब घड़ी को उलटा नहीं घुमाया जा सकता और इस तरह का टेस्ट अन्य जांच से कई तरह से बेहतर है.

जर्मनी में प्रसव और गर्भ से जुड़े मामलों की सलाहकार गाब्रिएल फ्रेष इसे एक समस्या का नाम देती हैं. उनका कहना है कि इस से गर्भवती महिलाओं पर दबाव बढ़ेगा. क्योंकि ऐसा समझा जाता है कि विकलांग बच्चों की देखरेख कठिनाइयों से भरी है, इसलिए महिलाओं को "सही फैसला" लेने को कहा जाएगा. फ्रेष ने कहा कि औरतों के आगे एक ऐसी छवि बनाई जाएगी कि इस तरह का टेस्ट उनकी जिंदगी आसान बना सकता है.

साथ ही इस से भविष्य में ऐसी और नई तरह की जांच के लिए दरवाजे खुल जाएंगे, "कौन जाने कि जल्द ही आप भ्रूण के पूरे जीनोम का ही पता लगा पाएंगे. फिर जो भी चीज ठीक नहीं होगी, उसकी जांच करवा ली जाएगी." फ्रेष कहती हैं कि इस से एक नैतिक बहस छिड़ गई है, "हमारे सामने एक बुनियादी सवाल है: क्या हम एक समाज के तौर पर चाहते हैं कि अजात बच्चों को खर पतवार की तरह उखाड़ कर फैंक दें, इसलिए क्योंकि आनुवंशिक असंतुलन है."

रिपोर्टः गुएंथर बिर्कनश्टॉक / ईशा भाटिया

संपादनः निखिल रंजन

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