1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें
समाज

गन्ना किसानों तक नहीं पहुंच रही चीनी की मिठास

फैसल फरीद
१७ सितम्बर २०१८

गन्ने को भारत की मूल फसल माना जाता है लेकिन अच्छी फसल के बावजूद किसानों को इसका फायदा नहीं पहुंचता. आखिर क्यों?

https://p.dw.com/p/34yws
Zuckerrohr Fidschi Inseln
तस्वीर: CC BY 2.0/ David Eickhoff

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने बागपत में एक कार्यक्रम के दौरान किसानों से कह दिया कि वे गन्ना कम उगाएं और दूसरी फसलों पर ध्यान दें क्योंकि ज्यादा गन्ने का मतलब है ज्यादा चीनी, जिससे लोगों को डायबिटीज हो रहा है. योगी के बयान को विपक्ष ने मुद्दा बना दिया. सोशल मीडिया पर तरह तरह के कमेंट्स आने लगें. इसकी खूब चर्चा होनी लगी. लेकिन गन्ना और चीनी उत्पादन के चक्र पर किसी का ध्यान नहीं गया.

गन्ना किसानों के बकाया भुगतान को हमेशा ही राजनितिक दल मुद्दा बनाते रहे हैं. इस मुद्दे पर धरना प्रदर्शन और चुनाव तक होते हैं. लेकिन कभी इसका कोई हल नहीं निकला. गन्ना किसान आज भी संघर्ष कर रहा हैं और चीनी मिल मालिक अलग परेशान हैं. विपक्ष में चाहे जो भी दल हो, वह हमेशा हमलावर रहता और सत्ता पक्ष यही कहता है कि हमने ज्यादा भुगतान कराया.

चीनी का उत्तर प्रदेश में इतिहास

वैसे तो गन्ने को भारत की मूल फसल माना जाता है. भारत में चीनी उद्योग तब बढ़ना शुरू हुआ जब नील का व्यवसाय मंदा पड़ने लगा क्योंकि जर्मनी में रंग बनाने की नई तकनीक विकसित हो गई थी. साल1920 में भारत में इंडियन शुगर समिति की स्थापना हुई. उससे पहले ही उत्तर प्रदेश के देवरिया में प्रतापपुर में 1903 में चीनी मिल शुरू हो गयी थी.

ये हैं भारतीय किसानों की मूल समस्याएं

द शुगरकेन एक्ट 1934 द्वरा प्रदेश सरकार को गन्ने का न्यूनतम मूल्य निर्धारित करने का अधिकार मिल गया. उत्तर प्रदेश में 1935 में गन्ना विकास विभाग बनाया गया. आज उत्तर प्रदेश पूरे भारत में सबसे ज्यादा चीनी पैदा करता है. प्रदेश में 2013 में गन्ना नीति भी लागू कर दी गई है. उत्तर प्रदेश में वर्तमान में निजी क्षेत्र में 94, सहकारी क्षेत्र में 24 और शुगर कॉरपोरेशन के अधीन एक चीनी मिल में गन्ने की पेराई हो रही है.

गर्व से हम भले कह लें कि उत्तर प्रदेश पूरे भारत में सबसे ज्यादा चीनी का उत्पादन करता है लेकिन इसकी जमीनी हकीकत कुछ और है. तीनो पक्ष यानी गन्ना किसान, चीनी मिल मालिक और राजनितिक दल इसमें अपनी अपनी बात कह रहे हैं.

ज्यादा गन्ना बना मुसीबत

14 सितंबर 2018 की शाम तक के सरकारी आंकड़े अगर देखें, तो उत्तर प्रदेश में गन्ना किसानों का कुल भुगतान 35,428.28 करोड़ रुपये बनता है, जिसमें से 9,817.59 करोड़ अभी बकाया है. इसमें निजी क्षेत्र की चीनी मिल के सबसे ज्यादा 8,634.22 करोड़ रुपये शामिल हैं. अब मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने एलान कर दिया है कि 15 अक्टूबर तक सब बकाया क्लियर किया जाए. फिलहाल भुगतान धीमी गति से चल रहा है.

उत्तर प्रदेश शुगर मिलर्स एसोसिएशन के जनरल सेक्रेटरी दीपक गुप्तारा के अनुसार 10-20 करोड़ के भुगतान से स्थिति नहीं सुधरेगी. समस्या का मूल क्या है, ये देखना होगा. एक अक्टूबर से नया गन्ना सीजन शुरू होगा और 31 अक्टूबर तक नया गन्ना क्रशिंग के लिए आ जाएगा. फिर उसके भुगतान का मीटर शुरू हो जाएगा. सरकार अपने स्तर से कार्यवाही करती है. डिफॉल्टर मिल मालिको पर एफआईआर तक दर्ज होती है. लेकिन दीपक गुप्तारा कहते हैं, "पैसे का भुगतान पैसे से ही होगा. आप फांसी चढ़ा दीजिए लेकिन जब पैसा ही नहीं है, तब कैसे करे कोई भुगतान?"

यूं चलता है बाजार

आखिर पैसा क्यों नहीं है? बाज़ार को समझने की कोशिश करते हैं. निजी क्षेत्र की मिलों के मुताबिक एक किलो चीनी के उत्पादन पर 36 रुपये की लागत आती है, जिसमें गन्ने का भुगतान शामिल है. बाजार में 30-31 रुपये प्रति किलो की कीमत मिलती है यानी एक किलो चीनी पर शुद्ध 5-6 रुपये का नुकसान. अगर विदेश आयात करेंगे, तो केवल 21-22 रुपये प्रति किलो मिलेंगे.

मूर्ख किसान मोटा आलू ही उगायेगा...

अब जरा चीनी का उत्पादन देख लीजिए. उत्तर प्रदेश में 2015-16 में चीनी 68.40 लाख टन हुई, 2016-17 में 87.70 लाख टन, 2017-18 में 120.30 लाख टन और अब 2018-19 में 130 लाख टन से ज्यादा होना अनुमानित है. गन्ना बोने का क्षेत्रफल भी बढ़ता जा रहा है. साल 2015-16 में यह 20.50 लाख हेक्टेयर था, 2016-17 में भी इतना ही रहा लेकिन 2017-18 में यह बढ़ कर 23 लाख हेक्टेयर हो गया और 2018-19 में यह 26.73 लाख हेक्टेयर है. गन्ना बोने के बड़ते रकबे और बढ़ते चीनी उत्पादन से दाम गिर गए हैं. अब भुगतान की समस्या आ गई है.

इसी तरह गन्ने का न्यूनतम समर्थन मूल्य भी बढ़ता जा रहा है. साल 2016-17 में जहां ये 305 रुपये प्रति क्विंटल था, वहीं 2017-18 में ये 315 रुपये प्रति क्विंटल हो गया है. अब इस साल इसका बढ़ना संभावित है क्योंकि यब चुनावी वर्ष है. वैसे, सरकार ने मिलर्स को सॉफ्ट लोन देने की सुविधा रखी है लेकिन कौन अपनी बैलेंस शीट पर यह दर्शाना चाहेगा? मिलर्स का मानना है कि किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य पर ठीक ठाक रिटर्न मिल जाता है, वहीं मिलर्स को नहीं मिलता.

किसानों की बात

गन्ना किसानों की बात उनके सबसे बड़े अराजनीतिक संगठन भारतीय किसान यूनियन द्वारा उठाई जा रही है. यूनियन के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत के अनुसार, "अगर किसी को मुफ्त का पैसा मिल जाए, तो क्या बुराई है? यही करते हैं ये सब. किसानों के गन्ने का पेमेंट रोक लेते हैं. कानून है कि गन्ने का पेमेंट 14 दिन के अंदर करना चाहिए वरना 14 % ब्याज पड़ेगा. लेकिन ब्याज हर बार माफ हो जाता है और वे किसानों का पैसा दबाए रहते हैं." टिकैत के अनुसार इसके लिए कोई एक सरकार दोषी नहीं है, "दोष सिर्फ यह है कि हमारा इतना दबाव नहीं है. क्या कभी किसी मिल मालिक को सरकार ने जेल में डाला है? हम संघर्ष करते हैं और कर रहे हैं."

संघर्ष निरंतर हैं. पिछले शुक्रवार को सहारनपुर के बेहट क्षेत्र में 200 गांव के हज़ारो किसानों ने धरना दिया. उनकी मांग थी कि शाकंभरी चीनी मिल को चलाया जाए ताकि उनके खेतों का गन्ना क्रशिंग के लिए वहां जा सके. ये मिल पिछले चार साल से बंद है. किसानों की इस महापंचायत में गन्ना समिति के पूर्व चेयरमैन चौधरी मोहम्मद ताहिर ने पत्रकारों को बताया, "चीनी मिल बंद होने से किसान अपने खेतों में खड़े गन्ने को लेकर चिंतित हैं. इस बार उसी को वोट देने का फैसला हो रहा है, जो इस चीनी मिल को चलवाएगा."

समय गन्ना किसान के लिए भी महत्वपूर्ण होता है. ताजा गन्ना (खेत से काटने के 24 घंटे के अंदर) क्रशिंग करने पर 0.20% शुगर रिकवरी बढ़ जाती है. ऐसे में मिल अगर देर से शुरू हुई, तो चीनी का उत्पादन घट जाएगा. इसीलिए अगर गन्ने की बंपर पैदावार हो रही है, तो जरूरी नहीं है कि किसान तक उसकी मिठास पहुंचेगी.

लीची वाले बिहार में अब स्ट्रॉबेरी की मिठास

इस विषय पर और जानकारी को स्किप करें