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सोशल मीडिया में चुनावी गुणगान

१४ अप्रैल २०१४

चुनावों में विज्ञापन कंपनियों की बहार आ जाती है. अब मुनाफे की नई बयार बह रही है वर्चुअल मीडिया यानि इंटरनेट पर. नये मीडिया पर राजनीतिक दलों और नेताओं का प्रचार जोरों पर है और इंटरनेट कंपनियां भारी मुनाफा बटोर रही हैं.

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तस्वीर: peshkova - Fotolia.com

सवाल यही है कि क्या इसका हिंदुस्तानी जनमानस की सोशल रिएलिटी से कोई लेनादेना है या यह शहरी मध्यवर्गीय मतदाता को ही लुभाने की कोशिश का हिस्सा है, जो श्रद्धापूर्वक नेट पर आवाजाही करता है. यह सही है कि सोशल मीडिया ने समकालीन राजनीतिक संचार के ढांचों और तरीकों को नया रूप दिया है. राजनीतिज्ञ और राजनीतिक दलों के जनता से इंटरेक्शन के तरीकों को सोशल मीडिया ने प्रभावित किया है. अखबारी बयान और टीवी पर दी गई बाइट्स जितनी ही अहमियत अब ट्वीट और फेसबुक स्टेटस की हो गई है. आंकड़ें सजाधजा कर पेश किये जाने लगे हैं कि किस नेता का ट्वीट कितना हिट है, ट्रेंडिग के ग्राफ में कौन कहां है. किसके कितने फॉलोवर हैं और किसकी बात पर कितनी प्रतिक्रियाएं मिली हैं.

ट्वीट और फेसबुक से लेकर व्हाट्सऐप तक, संवाद और पैगाम लाने ले जाने के नये मैदान बन गए हैं. अब वास्तविक मैदान, वास्तविक मंच, माइक, लाउडस्पीकर जैसे जरियों के साथ साथ ऑनलाइन उपस्थिति भी जरूरी मानी जा रही है. एक आंकड़े के मुताबिक, भारत के 81 करोड़ मतदाताओं में से 20 करोड़ ऐसे मतदाता हैं जिनके बारे में अनुमान है कि उनकी इंटरनेट तक पहुंच है. इनमें से 10 करोड़ फेसबुक और ट्विटर जैसे सोशल मीडिया मंचों पर सक्रिय हैं. इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया के हाल के अध्ययनों में पाया गया कि लोकसभा की 543 सीटों में से 160 सीटें ऐसी हैं जहां सोशल मीडिया असरदार रह सकता है. राजनीतिक दलों के चार से पांच हजार करोड़ के विज्ञापन और जनसंपर्क के बजट में अनुमान है कि 400 से 500 करोड़ रुपये तो इंटरनेट के नाम हैं. अब आप अंदाजा लगा लीजिए कि इंटरनेट पर कैसी मारामारी है. सोशल मीडिया के अभूतपूर्व इस्तेमाल को देखकर ही चुनाव आयोग को इस बारे में कुछ गाइडलाइनें जारी करनी पड़ी. राजनीतिक दलों को अपने सोशल मीडिया खातों और खर्चों का ब्योरा देना होगा.

आलम यह है कि इंटरनेट गतिविधियां मेनस्ट्रीम मीडिया के लिए भी समाचार के स्रोत के रूप में काम कर रही हैं. ट्वीट करना नेताओं का शगल बन गया है. मन की है तो भी और मन की न हुई तो और भी. चुनावों में इंटरनेट और सोशल नेटवर्किंग की दखल, जाहिर है इसकी लोकप्रियता, स्पीड और इंटेंसिटी से भी है. असर अच्छा पड़ना चाहिए और जल्दी से जल्दी पड़ना चाहिए, तो नया मीडिया यह काम कर देता है. फिर युवा वोटरों की एक नई पीढ़ी तैयार हुई है जिसकी अच्छी खासी संख्या है. वर्चुअल दुनिया के नागरिक यानि नेटीजन को अपने पक्ष में प्रेरित करने के लिए इंटरनेट एक मुफीद जगह बन गया है.

मीडिया चिंतक मैनुअल कासल ने कहा है, “इंटरनेट प्रमुख तौर पर एक सांस्कृतिक रचना ही है.” अब यह उसे बरतने वालों पर है कि वे इस संस्कृति में कितना विद्रूप लाते हैं, उसे कितना भद्दा बनाते हैं या उसे और बेहतर, आकर्षक और मानवीय बनाते हैं. चुनावी होड़ में तो लगता है कि इंटरनेट पर गजब झपटमारी छिड़ी है.

लेकिन वहां भी लोकतंत्र कितना मजबूत रह पाता है, यह भी बहसतलब है क्योंकि देखा जाता है कि अगर हां में हां मिला रहे हैं तो सब ठीक है, सब आनंद है लेकिन अगर किसी गलत बात का विरोध किया तो कई इंटरनेट ‘शूरवीर' मानो खून के प्यासे हो जाते हैं. शुक्र है कि इंटरनेट का ब्रह्मांड भी एक लिहाज से हमारे ब्रह्मांड की तरह काम करता है, फैलता ही जाता है. वो स्थिर या संकुचित स्पेस नहीं है. वहां अधकचरापन और कुत्सित विचार अपना कोई तंबू खड़ा ही नहीं कर पाते. जैसे ही करते हैं, प्रतिरोध की आंधियां उन्हें उड़ा ले जाती हैं.

इंटरनेट के चुनावों में इस्तेमाल को लोकतंत्र का नया अध्याय बताने वाले आशावादी अतिरेक भी आपको मिल जाएंगें. लेकिन ऐसा मानने में हिचक होती है. देखने वाली बात यह भी है कि देश की आधा से ज्यादा आबादी क्या इंटरनेट से जुड़ पाई है. दलितों, दबेकुचले तबकों और महिलाओं की वहां कितनी भागीदारी है. क्या सोशल नेटवर्किग में चुनाव के अन्य जेनुइन सवालों के लिए भी जगह बन पाएगी या यह सिर्फ चुनावी जनसंपर्क और विज्ञापन का ही प्लेटफॉर्म बना रहेगा. कहीं ऐसा तो नहीं कि इसका इस्तेमाल करने वाली शक्तियां इसकी अहमियत को अपने स्वार्थ के लिए साधती रहेंगी. फिलहाल तो लगता है यही हो रहा है.

लेकिन आप चाहें वहां कितनी धूल उड़ा लीजिए, चुनाव-2014 को सोशल मीडिया चुनाव या इंटरनेट चुनाव कहने की हड़बड़ी नहीं की जा सकती. चुनावी उपक्रम इंटरनेट पर व्यक्ति का यशोगान तो करा सकते हैं लेकिन वोट हासिल करने के लिए तो उपाय जमीन से जुड़े ही करने होंगे. पथरीली, गड्डमड्ड, धूलमिट्टी और कई खुरदुरे सवालों वाली वास्तविक ठोस भारतीय जमीन, भारत जैसे देश की चुनावी संस्कृति यही है.

ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी

संपादन: ईशा भाटिया