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संगीत मेरे परिवार में नहीं: प्रियदर्शिनी कुलकर्णी

३० अगस्त २०१४

माइक्रो-बायोलॉजी में एमएससी करने के बावजूद उन्होंने संगीत को अपना पेशा बनाना सही समझा. एक मुलाकात जयपुर-अतरौली घराने की प्रियदर्शिनी कुलकर्णी से.

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तस्वीर: DW/K. Kumar

हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में जिन गायिकाओं ने पिछले एक दशक के दौरान अपनी जगह बनाई है, उनमें जयपुर-अतरौली घराने की प्रियदर्शिनी कुलकर्णी का नाम प्रमुखता से लिया जाता है. उन्होंने औरंगाबाद विश्वविद्यालय से विशेष योग्यता के साथ माइक्रो-बायोलॉजी में एमएससी किया है, लेकिन उनका पूर्ण समर्पण संगीत के प्रति है. प्रस्तुत है उनके साथ हुई बातचीत के कुछ प्रासंगिक अंश:

डॉयचे वेले: अपने परिवार में आप पहली संगीतकार हैं. संगीत के प्रति इतनी लगन कैसे पैदा हुई?

प्रियदर्शिनी कुलकर्णी: मेरा जन्म तो संगीतकारों के परिवार में नहीं हुआ लेकिन मेरे परिवार में सामाजिक विचारक, साहित्यकार, शिक्षाशास्त्री, डॉक्टर और समाजसेवी जरूर थे. मेरे दादा आर दीवान मराठवाड़ा से पहले संसद सदस्य थे और मेरी मौसी अनुराधा वैद्य मराठी की प्रख्यात लेखिका हैं. मेरी मां संगीत एवं संगीतकारों का सम्मान करती थीं और हमें कुछ सिखाने लायक गाना भी जानती थीं. संगीत में मेरी रुचि देखकर वे मुझे पूरे मराठवाड़ा अंचल के सर्वाधिक प्रख्यात और गुणी गायक पंडित नाथराव नरेलकर के पास ले गईं. पंडितजी आज भी 80 वर्ष की आयु में पश्चिम भारत के सभी संगीत समारोहों में गा रहे हैं और उनके 75 वर्ष का होने पर पंडित भीमसेन जोशी ने स्वयं उन्हें सम्मानित किया था. मेरी मां सप्ताह में चार-पांच बार मेरे साथ घंटों बैठकर मुझसे रियाज कराती थीं और मैं एमएससी करने तक यानि दस साल तक पंडित नरेलकर से सीखती रही.

जयपुर-अतरौली घराने की तरफ रुझान कैसे हुआ, विशेषकर मल्लिकार्जुन मंसूर की गायकी की ओर?

औरंगाबाद में होने के कारण मुझे अनेक गायक-गायिकाओं को सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ. मैं स्वयं बहुत से राग और बंदिशें सीख चुकी थी लेकिन जब भी किशोरी अमोणकर, कौशल्या मांजरेकर, विजया जाधव या श्रुति शाडोलीकर जैसी जयपुर-अतरौली घराने की गायिकाओं को सुनती थी तो उलझन में पड़ जाती थी.

1980 के दशक के अंत की बात है कि एक संगीत समारोह में मैंने मंसूर जी को सुना और मैं मंत्रमुग्ध हो गई. कुछ समय बाद मैं उनके पुत्र और शिष्य राजशेखर मंसूर जी से मिली और उनसे सिखाने के लिए अनुरोध किया. जिस साल पंडित मल्लिकार्जुन मंसूर का निधन हुआ, उसी साल मैंने धारवाड़ जाकर राजशेखरजी से सीखना शुरू किया और यह सिलसिला दस साल तक चला. इसी बीच मैंने संगीत में भी एसएनडीटी कॉलेज से एमए कर लिया जहां मुझे गजाननराव जोशी जी की पुत्री सुचेता भिड़कर यानि मालुताई से भी सीखने को मिला. उस्ताद भूरजी खान के पुत्र बाबा अजीजुद्दीन खान और शिष्य मधुसूदन कानितकर से भी उनकी मृत्यपर्यंत अनेक वर्षों तक मुझे मार्गदर्शन मिला.

पुणे संगीत का प्रमुख केंद्र है. यहां आपको विभिन्न घरानों के अनेक संगीतकारों को सुनने का मौका मिला होगा. किन-किन ने आप पर अपनी छाप छोड़ी?

पुणे में स्वाभाविक रूप से भीमसेन जी का नाम सबसे पहले आता है. फिर वीणा सहस्रबुद्धे और मालिनी राजुरकर की मेरे मन में बहुत इज्जत है. हमारा सौभाग्य है कि हमें पद्मा तलवलकर और किशोरी अमोणकर को सुनने का अवसर मिला. पिछले एक दशक से अधिक समय से उल्हास कशालकर जी ने हमारा ध्यान सबसे अधिक आकृष्ट किया है.

अपने गायन में आपकी कोशिश क्या है, मंसूर शैली की शुद्धता बनाए रखना या अपने कलात्मक स्वभाव के अनुसार कुछ नवीन तत्व भी जोड़ना?

मेरा सौभाग्य रहा कि मुझे बचपन से ही ऐसे गुरु से सीखने को मिला जो स्वयं एक सिद्धहस्त गायक हैं. मैं काफी पहले ही प्रचलित रागों की बंदिशों और उनकी सूक्ष्मताओं से परिचित हो गई थी और पांच-छह घरानों और उनकी शाखा-प्रशाखाओं की विशेषताएं भी जान गई थी. जयपुर-अतरौली घराने में एक बंदिश के अनेक अप्रचलित राग गाये जाते हैं. लेकिन पिछले साठ-सत्तर वर्षों के दौरान इस घराने के श्रेष्ठ कलाकारों ने छोटा खयाल, तराना और अन्य रूपों में भी बंदिशें रचीं और गायीं.

आगरा और ग्वालियर घराने से हम काफी कुछ ले सकते हैं. मल्लिकार्जुन मंसूर जी नटबिहाग में आगरे की बंदिश गाने के बाद बिहागड़ा की सुंदर बंदिश गाते थी या सम्पूर्ण मालकौंस के बाद मालकौंस का ग्वालियर घराने का द्रुत तराना गाया करते थे. मेरा लक्ष्य है कि मैं भी खुद की बनाई हुई नहीं, बल्कि एक बंदिश वाले रागों में औरों द्वारा बनाई हुई अन्य बंदिशें गाऊं. वैसे मेरे गुरु राजशेखर जी इसके विरुद्ध हैं. वे एक ही बंदिश गाते हैं.

आप हर वर्ष देश के कई नगरों में मल्लिकार्जुन मंसूर को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए संगीत समारोहों का आयोजन करती हैं. इस प्रयास के दौरान कैसा अनुभव हुआ?

लगभग 11 साल से मैं मंसूर स्मृति संगीत समारोह आयोजित करने लगी हूं. शुरुआत 2003 में हुई थी जब अपनी षष्ठीपूर्ति के अवसर पर राजशेखर जी ने उन्हें एक सार्वजनिक प्रस्तुति द्वारा श्रद्धांजलि दी थी. इस कार्यक्रम में मल्लिकार्जुन मंसूर जी के शिष्य सरोदवादक विश्वजीत रॉय चौधुरी दूसरे कलाकार थे और अप्पा कानितकर मुख्य अतिथि थे. तब से समारोहों की यह शृंखला चल रही है और आकार में बड़ी होती जा रही है. आयोजन के लिए बहुत-सा गैर-सांगीतिक काम करना होता है, धन जुटाने से लेकर सारे इंतजाम करने तक. लेकिन मुझे इससे बहुत संतुष्टि मिलती है. युवाओं में मंसूर जी की विरासत के प्रति आकर्षण बढ़ा है और उम्र में बड़े लोग भी उन्हें अधिक याद करने लगे हैं.

इंटरव्यू: कुलदीप कुमार

संपादन: ईशा भाटिया