वॉरसा विद्रोह के 70 साल
१ अगस्त २०१४पहली अगस्त को हर साल वॉरसा में शाम पांच बजे सायरन बजने लगते हैं. यह है शून्य काल की याद, जब जर्मन कब्जावरों के खिलाफ विद्रोह शुरू हुआ. यह अधिकृत पोलैंड में प्रतिरोध आंदोलन की सबसे बड़ी सशस्त्र कार्रवाई थी. इसका नतीजा बहुत त्रासद था. दो महीने की लड़ाई में दो लाख लोग मारे गए. उनमें से ज्यादातर असैनिक नागरिक थे. वॉरसा विद्रोह का मूल्यांकन विवादित है. एक के लिए यह देशभक्तिपूर्ण बहादुरी है, जिसके दौरान देश की राजधानी को अपनी ताकत से आजाद करने की कोशिश की गई - तो दूसरों के लिए ऐसी निरर्थक कार्रवाई, जिसने बहुत सी जानें ले ली.
विद्रोह की विरासत को लेकर भी कुछ सालों से विवाद हो रहा है. पिछले सालों में स्मृति समारोहों के दौरान सत्ताधारी राजनीतिज्ञों को उग्र दक्षिणपंथी और राष्ट्रवादी गुटों की आलोचना सहनी पड़ी है. उनका कहना है कि जर्मनी के साथ रिश्ते सामान्य बना कर और यूरोपीय एकीकरण के साथ उन्होंने राष्ट्रीय हितों को नुकसान पहुंचाया. कभी विदेश मंत्री रहे व्लादिस्लाव बार्टोशेव्स्की ने तो, जो खुद वॉरसा विद्रोह में शामिल रहे हैं, स्मृति समारोहों से दूर रहने की धमकी दे दी थी.
इस साल वॉरसा विद्रोह के व्यवसायीकरण पर विवाद है. एक डिजाइनर ने बाजार में एक टीशर्ट उतारा है जिसमें खून के नकली धब्बे हैं. खिलौने बनाने वाली एक कंपनी पांच साल से ज्यादा उम्र के बच्चों के लिए लकड़ी और प्लास्टिक के ऐसे टुकड़े बेच रही है जिनकी मदद से लड़ाई की कॉपी की जा सकती है. वॉरसा विद्रोहियों के संघ के 88 वर्षीय एडमुंड बारानोव्स्की विरोध करते हुए कहते हैं, "इस तरह के खिलौनों पर रोक लगा दी जानी चाहिए." उनका कहना है कि हथियार भले ही प्लास्टिक के हों, उनकी जगह बच्चों के हाथों में नहीं है.
70 साल पहले रवैया अलग था. उस समय 14-16 साल के बच्चों के साथ साथ युवा बच्चों ने भी विद्रोह में हिस्सा लिया था और अपनी जान गंवाई थी. वॉरसा के पुराने सिटी वॉल एक स्मारक विद्रोह में मरने वाले बच्चों की याद में है. एक छोटा लड़का, बहुत ही बड़े जूते और हाथ में बंदूक के साथ. मातृभूमि सेना (एके) के सैनिक नेतृत्व और लंदन में स्थित निर्वासन सरकार के लिए विद्रोह सिर्फ राजधानी को आजाद कराने के लिए नहीं, बल्कि देश के भविष्य के लिए था. जर्मन सेना हर मोर्चे पर हार रही थी जबकि रूसी सेना लगातार पश्चिम की ओर बढ़ रही थी.
हालांकि अभी युद्ध खत्म नहीं हुआ था लेकिन एक बार फिर लगने लगा था कि पोलैंड बड़ी शक्तियों के हाथों खिलौना बन जाएगा. मित्र देशों ने एक साल पहले ही तेहरान में पोलैंड को पश्चिम की ओर खिसकाने के बारे में बात की थी. 17 सितंबर 1939 को सोवियत संघ द्वारा कब्जा किए गए पूर्वी पोलिश इलाके उसी के पास रहते. वॉरसा को आजाद कराने से निर्वासन सरकार के पास तुरुप का पत्ता आ गया होता.
लेकिन विद्रोह बुरी तरह से विफल रहा. सोवियत सेना से मदद पाने की उम्मीद पूरी नहीं हुई. करीब 16,000 भूमिगत लड़ाके मारे गए, 20,000 घायल हो गए और करीब 15,000 गिरफ्तार कर लिए गए. डेढ़ से पौने दो लाख आम लोग मारे गए. विद्रोह को दबाने के बाद जर्मनों ने वॉरसा को तहस नहस कर दिया. लोगों को भगा दिया गया या गिरफ्तार कर यातना शिविरों में भेज दिया गया. सजा के इन बर्बर तरीकों का मकसद यह था कि लोग विद्रोह के बारे में सोचें भी नहीं.
एमजे/एजेए (डीपीए)