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राजनीति के केंद्र में भूमि अधिग्रहण विधेयक

२० अप्रैल २०१५

किसान का सवाल राजनीति का प्रमुख मुद्दा बन गया है. विवाद के केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार का भूमि अधिग्रहण विधेयक है जिसे भारतीय जनता पार्टी और उसके सहयोगी दल आर्थिक विकास के लिए जरूरी और गरीबों के हित में बता रहे हैं.

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तस्वीर: Reuters/Anindito Mukherjee

इसके विपरीत कांग्रेस और अन्य विपक्षी पार्टियां उसे किसान विरोधी बताकर उसका जबर्दस्त विरोध कर रही हैं. मोदी सरकार किसानों की जमीन के अधिग्रहण से संबंधित इस कानून को लागू करने के लिए इस कदर बेकरार है कि पहले उसने पिछले वर्ष के अंतिम दिन इसके बारे में एक अध्यादेश जारी किया. जब संसद के बजट सत्र के पूर्वार्द्ध में यह विधेयक लोकसभा में पारित होने के बावजूद राज्यसभा में पारित नहीं हो पाया, यानि यह कानून का रूप लेने में असफल रहा, तो उसने समय से पहले ही राज्यसभा की बैठक खत्म करके अध्यादेश को दुबारा जारी कर दिया. आज संसद के बजट सत्र के उत्तरार्द्ध का पहला दिन था. जब इस अध्यादेश को लोकसभा के पटल पर रखा गया तो विपक्षी सांसदों ने भारी हंगामा किया जिसके कारण सदन की कार्यवाही को दोपहर दो बजे तक के लिए स्थगित करना पड़ा.

दरअसल भूमि अधिग्रहण विधेयक इस समय राजनीति का केंद्रीय मुद्दा बन गया है और इस पर विपक्षी दलों के बीच स्वतः जिस प्रकार की एकता देखने में आ रही है, वह आने वाले दिनों की राजनीति के बारे में भी स्पष्ट संकेत देती है. रविवार को दिल्ली में कांग्रेस की रैली हुई जिसमें लंबी अनुपस्थिति के बाद पार्टी के उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने भी हिस्सा लिया. उनके और पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी के भाषणों का निशाना मोदी सरकार थी और उन्होंने सरकार पर सीधे-सीधे यह आरोप लगाया कि वह अमीर उद्योगपतियों के हित में किसानों से उनकी जमीन छीन रही है. नरेंद्र मोदी भी इस प्रचार से परेशान हैं कि उनकी सरकार अमीरों की तरफ झुकी हुई है और उन्होंने रविवार को बीजेपी सांसदों को संबोधित करते हुए उनसे इस प्रचार के जवाब में प्रचार करने को कहा.

शहरी मध्यवर्ग का नजरिया

दरअसल असल मुद्दा आर्थिक विकास के प्रति दो भिन्न नजरियों का है. एक नजरिया शहरी मध्यवर्ग और सम्पन्न तबके का है जो खुद तो देश के लिए कोई त्याग करने के मूड में नहीं रहता लेकिन शेष सबसे उम्मीद करता है कि वे देश के हित में अपना सर्वस्व भी दांव पर लगा देंगे. इस तबके का कहना है कि देश के औद्योगिक विकास के लिए जरूरी है कि नए कारखाने और उद्यम लगें और इसके लिए स्वाभाविक है कि जमीन की जरूरत पड़ेगी. और यह जमीन किसान से ही ली जा सकती है, इसलिए यदि उसकी जीविका भी खतरे में पड़ जाए और वह अपनी ही जमीन से बेदखल कर दिया जाए तो भी इसमें कोई हर्ज नहीं. लेकिन यदि इसी तबके से कहा जाए कि देश हित में उसे अपना मकान देना पड़ेगा, तो यह सम्पन्न वर्ग अपना मकान छोड़ने को कभी राजी न होगा. दूसरा नजरिया किसान का है जो नहीं चाहता कि कोई उसकी इच्छा के विरुद्ध उससे उसकी जमीन छीने.

दरअसल मनमोहन सिंह की सरकार ने 2013 में विपक्षी पार्टियों के साथ व्यापक सलाह-मशविरा करके भूमि अधिग्रहण कानून बनाया था. तब बीजेपी भी इसके पक्ष में थी. पश्चिम बंगाल में हुए सिंगूर और नंदीग्राम के घटनाक्रम के बाद भूमि अधिग्रहण का मुद्दा राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में आ गया था. लेकिन सत्ता में आते ही बीजेपी को इस कानून में नुक्स नजर आने लगा और वह एक दूसरा कानून बनाने में जुट गई. इसके पारित होने का इंतजार किए बिना ही उसने अध्यादेश भी जारी कर दिया. दरअसल पहले और अब के विधेयक के प्रावधानों में अंतर यह है कि जहां पहले पब्लिक प्राइवेट प्रोजेक्ट यानि निजी और सरकारी भागीदारी से लगने वाली परियोजनाओं के लिए जमीन अधिग्रहण करते समय सभी मालिकों में से 70 प्रतिशत की सहमति और निजी परियोजना के लिए 80 प्रतिशत की सहमति की अनिवार्यता थी, वहीं नए विधेयक में इसे खत्म कर दिया गया है.

दूसरे, पहले कानून में व्यवस्था थी कि यदि पांच साल तक जमीन का इस्तेमाल नहीं हुआ तो वह उसके मालिक को लौटाई जाएगी. अब इसे खत्म कर दिया गया है. यदि कोई सरकारी अधिकारी गलत काम करता है, तो उस पर बिना सरकार की इजाजत के मुकदमा नहीं चल सकता. ये और इसी तरह के अन्य प्रावधानों के कारण विपक्ष और किसानों के कान खड़े हो गए हैं. इस समय ऐसा नहीं लगता कि सरकार विधेयक को राज्यसभा में पारित करवा पाएगी क्योंकि वहां उसके पास बहुमत नहीं है. लगभग सभी विपक्षी दल इस मुद्दे पर एकमत हैं. उधर अन्ना हजारे भी इस पर फिर से आंदोलन छेड़ने की सोच रहे हैं.

ब्लॉग: कुलदीप कुमार