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यूरोप में यथास्थिति?

ग्रैहम लूकस/एमजे२१ जनवरी २०१५

शार्ली एब्दो के दफ्तर पर खूनी हमले के बाद यूरोप में आप्रवासी समुदाय और समाज में उनके घुलने मिलने की संभावना पर बहस शुरू हो गई है. ग्रैहम लूकस का कहना है कि यूरोप को समाज में आप्रवासियों के योगदान को खुलकर मानना होगा.

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तस्वीर: picture-alliance/dpa/M. Brandt

बुधवार को यूरोपीय संघ के देश अपने यहां रहने वाले या सीरिया और इराक में इस्लामिक स्टेट के साथ लड़ने वाले इस्लामी चरमपंथियों पर नकेल कसने के लिए नए आतंकवाद विरोधी कदम तय कर रहे हैं. इसमें संदिग्ध चरमपंथियों की सूची तैयार करना, यूरोप में उनके आने जाने में बाधा डालना और जेलों में सजा काट रहे चरमपंथियों को अलग थलग करना शामिल है. ये कदम इस्लामी चरमपंथियों की मौजूदा पीढ़ी पर लगाम लगाने के लिए जरूरी हैं, लेकिन हम यूरोपीयनों को यहां रहने वाले युवा मुसलमानों के बीच असंतोष के कारणों का पता करने की भी जरूरत है. यदि हम ऐसा नहीं करते हैं तो हमें सालों या दशकों तक इस्लामी आतंकवाद, शहरों, रेलवे स्टेशनों, हवाई अड्डों और शॉपिंग मॉल पर उनके हमले झेलने होंगे.

अमेरिका से अलग यूरोप में आप्रवासियों को आकर्षित करने और समाज में उनका समेकन करने की परंपरा नहीं है. 1950 के दशक में जर्मनी ने द्वितीय विश्वयुद्ध में मारे गए जर्मनों की भरपाई करने के लिए दक्षिण यूरोप और तुर्की से हजारों मजदूरों की भर्ती की थी. शुरू से ही उन्हें मेहमान मजदूर कहा जाता था क्योंकि आइडिया यह था कि एक दिन उनकी जरूरत नहीं रहेगी और वे अपने घरों को वापस लौट जाएंगे. यूरोप के दूसरे देशों में ये मजदूर पहले कब्जे में रहे देशों से आए. उस समय इस विचार को कोई समर्थन नहीं था कि वे यहां रुक जाएंगे और एक दिन यूरोप को अपना घर कहेंगे.

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ग्रैहम लूकसतस्वीर: DW/Matthias Müller

आज यूरोप में आप्रवासियों की तीसरी पीढ़ी कुछ हद तक अपनी जिंदगी से पूरी तरह निराश है. वे अपने अपने माता-पिता जैसे नहीं है और उन्हें लगता है कि समाज उन्हें स्वीकार नहीं कर रहा है. उनमें से बहुत से स्कूलों में फेल कर गए हैं, अपने में ही रहते हैं और स्थानीय भाषा भी नहीं जानते. ऐसे में समाज में सही जगह पाने की संभावना भी नहीं है. यूरोप के मुस्लिम समुदायों को उग्र दक्षिणपंती संगठनों द्वारा आयोजित रैलियों से सदमा लगा है. अस्वीकार किए जाने की इस भावना के बीच युवा मुसलमानों को सीरिया और इराक में लड़ने के लिए आकर्षित किया गया है. यूरोपीय लोगों को डर है कि वहां से लौट कर वे यूरोप में आतंकी हमले करेंगे जैसा पेरिस में हुआ.

जो लोग इराक या सीरिया जाकर लड़े हैं उन्हें वापस लौटने पर लंबी कैद की सजाएं मिलेंगी. संभवतः समाज के लिए वे पूरी तरह खो चुके हैं. सवाल यह है कि इस्लामी चरमपंथ में अपनी समस्याओं का हल खोजने वाले युवा मुसलमानों को यूरोप में अस्मिता की भावना कैसे दी जाए. जवाब इंकार में नहीं, बल्कि समेकन में है. इसके एक दूसरा पहलू भी है. यूरोप में जन्मदर गिर रही है. बढ़ती संख्या में युवा महिलाएं परिवार बनाने और संतान पाने में देर कर रही है. वे करियर को प्राथमिकता दे रही हैं. और दें भी क्यों नहीं? इसलिए हमें आप्रवासियों की जरूरत है. सबसे बढ़कर हमें श्रम बाजार की जरूरतों के अनुरूप आप्रवासी नीति की जरूरत है.

और यूरोप को जल्द ही एक हकीकत में नजर डालनी होगी जिसे अनुदारवादी लंबे समय से नकारते रहे हैं. यूरोप बहुसांस्कृति समाज है और इस्लाम उसका हिस्सा है. हमें जातीय और धार्मिक विभाजन पैदा करने वाले प्रदर्शनाकारियों की जरूरत नहीं है जैसा कि अतिवादी दक्षिणपंथी जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन और नीदरलैंड्स में कर रहे हैं. हमें समाज में आप्रवासी समुदायों के योगदान और भविष्य की सुरक्षा में कुशल आप्रवासियों की भूमिका को खुलकर स्वीकार करना होगा. अपने को समाज का हिस्सा समझने वाला आप्रवासी आतंक का रास्ता नहीं अपनाएगा.