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मुंबई हमलाः इंसाफ अभी मंजिल से बहुत दूर है

२६ नवम्बर २०१४

नवंबर महीने का आखिरी पखवाड़ा भारत की सुरक्षा पर समीक्षा का अवसर प्रदान करता है. छह साल पहले आतंकी सिरफिरों ने मुंबई को निशाना बनाकर हर साल इस हमले की बरसी पर यह सोचने के लिए मजबूर कर दिया है कि हम कितने महफूज हैं.

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तस्वीर: AP

वैसे भी गुजरते साल का यह आखिरी दौर साल भर के किए कराए का हिसाब किताब करने का माकूल वक्त होता है. ऐसे में 26/11 का हमला हमें अपनी और अपने आस पास की हिफाजत को लेकर चिंतित करता है. साथ ही मुंबई हमले के लिए दोषी ठहराए गए एक मात्र आतंकी अजमल कसाब को 21 नवंबर को दी गई फांसी की सजा भी यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्या वाकई में इस अप्रतिम अपराध के खिलाफ कानून से इंसाफ मिल पाया.

ऐसे हमले किसी को कोसने के लिए नहीं, बल्कि प्रशासन और न्याय व्यवस्था की कार्यप्रणाली का अवलोकन करने का मौका देते हैं. इस हमले से जुड़ी जांच और अदालती प्रक्रिया भी खुद को समय की कसौटी पर कसने की हर साल कोशिश करती है. हालांकि रस्म अदायगी के तौर पर मुंबई और दिल्ली सहित देश भर में हमले के पीड़ित परिवारों को सांत्वना के दो बोल सुना दिए जाते हैं, सुरक्षा एवं खुफिया एजेंसियां अपने नेटवर्क की समीक्षा कर सुरक्षा इंतजामों के दुरुस्त होने की जांच कर लेती हैं. जबकि सरकारें इनकी समीक्षा रिपोर्टों के आधार पर सब कुछ ठीक होने और भविष्य में सुरक्षा इंतजामों को बेहतर करने की जरुरत पर बल देने की रस्म पूरी कर देती हैं.

इससे इतर समाज का एक तबका ऐसा भी है जो बहस मुबाहसों से दूर अपनी और आस पास की हिफाजत को लेकर अपनी चिंता में साल दर साल इजाफा करता है. इस तबके में वे लोग शुमार हैं जो हमलों में अपनों को खो चुके हैं या खुद किसी हमले का शिकार होकर जिंदगी की जद्दोजेहद में लगे हैं.

जहां तक इंसाफ की बात है तो वह अदालतों ने चार साल में पूरा कर दिया. मुंबई हमले की जांच के लिए गठित विशेष अदालत से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक सभी अदालतों ने इस मामले का स्पीड ट्रायल कर चार साल में फैसले सुना दिए. इसी का नतीजा था कि 21 नवंबर 2012 को कसाब फांसी पर लटका दिया गया. इसमें कोई शक नहीं है कि अपनी सुस्त अदालती प्रक्रिया के लिए कुख्यात भारत में इतने बड़े मामले का फैसला चार साल में मुकम्मल होना काबिले तारीफ है, मगर रिटायर्ड जस्टिस एपी शाह के मुताबिक यह बात चिंता कम करने वाली नहीं कही जा सकती है. उनका मानना है कि आतंकी हमले किसी एक को नहीं, बल्कि पूरे समाज को निशाना बनाते हैं.

ऐसे में दोषी को सुनाई गई सजा पर अमल करने से अदालती प्रक्रिया तो मुकम्मल हो जाती है, मगर इसे इंसाफ का तकाजा ही कहेंगे कि सही मायने में समाज के साथ इंसाफ नहीं हो पाता है. क्योंकि समाज में भय पैदा करने के लिए ऐसे हमले किए जाते हैं, किसी को उम्र कैद या फांसी हो जाने से समाज उस भय से मुक्त नहीं हो जाता है. इसका सबसे खरा उपाय है ऐसे हमलों की पुनरावृत्ति को रोकना.

यह काम सरकारों के स्तर पर सुरक्षा इंतजाम पुख्ता कर और जांच एवं कानूनी प्रक्रिया को कठोर तथा चुस्त करके ही किया जा सकता है. ऐसे में हमारी सरकारों को अमरीका से सबक लेना चाहिए जहां 9/11 के हमले के बाद अब तक कोई बड़ा आतंकी हमला दोहराया नहीं गया है. जबकि भारत में साल दर साल आतंकी हमले होना बताते हैं कि हमने पिछले हमले से सबक लेने के बजाय सिर्फ इनकी बरसी मनाने की रस्म अदायगी तक ही अपने फर्ज को सीमित रखा है.