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'भारत को हैं कई खतरे'

१९ अप्रैल २०१४

ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कन्नड़ लेखक यूआर अनंतमूर्ति का कहना है कि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने से भारत में अभिव्यक्ति की आजादी पर खतरा बढ़ जाएगा. वे उन लेखकों में हैं जो चुनाव में बीजेपी का विरोध कर रहे हैं.

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U R Ananthamurthy
तस्वीर: picture-alliance/empics

भारत के सबसे बड़े लेखकों में शामिल यूआर अनंतमूर्ति ने हिन्दी लेखक अशोक वाजपेयी और योजना आयोग की सदस्य सैयदा हमीद के साथ नई दिल्ली में एक साझा प्रेस कॉन्फ्रेंस कर आरोप लगाया कि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने से देश में असहिष्णुता बढ़ेगी. भारतीय जनता पार्टी ने निर्वाचन आयोग के पास शिकायत करके अनंतमूर्ति को गुलबर्गा केन्द्रीय विश्वविद्यालय के कुलाध्यक्ष के पद से हटाने की मांग की. पार्टी ने चुनाव की अवधि के दौरान सभी सार्वजनिक स्थानों से उनके और कन्नड़ के दूसरे ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता लेखक गिरीश कर्नाड के फोटो हटाने की भी मांग की क्योंकि दोनों ही बीजेपी का विरोध कर रहे हैं.

साहित्य अकादमी के अध्यक्ष रह चुके अनंतमूर्ति लोहियावादी समाजवाद से जुड़े रहे हैं लेकिन इस समय गैर कांग्रेसवाद की जगह गैर बीजेपीवाद के पक्षधर हैं. हालांकि हफ्ते में उन्हें दो बार डायलिसिस करवाना पड़ता है, लेकिन आज भी उनमें अपनी बात के लिए सत्ता से भिड़ जाने का हौसला बरकरार है. उनसे हुई बातचीत के कुछ अंश:

वर्तमान राजनीतिक हालात में आप देश के सामने किस तरह का खतरा देख रहे हैं?

मैं कई खतरे देख रहा हूं. भारत को एक मजबूत और शक्तिशाली राष्ट्र बनाने का ईमानदार प्रयास भी खतरे से भरा है. शक्तिशाली को सैन्य शक्ति, तकनीकी शक्ति, आर्थिक शक्ति आदि के रूप में ही परिभाषित किया जाता है. लेकिन भारत को शक्तिशाली नहीं, लचीला राष्ट्र बनने की जरूरत है. भारत एक अलग किस्म की सभ्यता है. इसी तरह जब विकास की बात की जाती है तो उसका मतलब होता है कि बाघों के लिए कोई जगह नहीं होगी, अनगिनत भाषाओं के लिए कोई जगह नहीं होगी, अलग-अलग तरह के खान-पान के लिए कोई जगह नहीं होगी क्योंकि विभिन्न तरह के भोजन को मार्केट नहीं किया जा सकेगा. भारत विविधता वाला देश है. नरेंद्र मोदी के साथ समस्या यह है कि उनके पास आंतरिक जीवन नहीं है. यह भी एक तरह का खतरा है.

आपको नहीं लगता कि लेखकों, कलाकारों और संस्कृतिकर्मियों को समाज और संस्कृति के सरोकारों के साथ लगातार सक्रिय रहना चाहिए? तभी वे समाज और राजनीति को भी प्रभावित कर पाएंगे.

हमारी क्षेत्रीय भाषाओं में रचा जाने वाला साहित्य अंग्रेजी में रचे जाने वाले साहित्य से बहुत भिन्न है. हम लोग लगातार समाज और संस्कृति के सवालों से जुड़े रहते हैं और जूझते रहते हैं. सिर्फ भारतीय भाषाओं में ही दलित साहित्य का या महिला लेखन का आंदोलन है. मेरा मानना है कि प्रत्येक संस्कृति का एक फ्रंटयार्ड और एक बैकयार्ड होता है. क्षेत्रीय भाषाएं हमारा बैकयार्ड हैं और वह बहुत समृद्ध है.

हम भारतीय भाषाओं को क्षेत्रीय के स्थान पर राष्ट्रीय भाषाएं क्यों न कहें?

सही है. जवाहरलाल नेहरू ने साहित्य अकादमी की स्थापना इसीलिए की थी ताकि सभी भारतीय भाषाओं को राष्ट्रीय भाषाओं का दर्जा प्राप्त हो. जब मैं अकादमी का अध्यक्ष था, तो कई आदिवासी भाषाएं भी साहित्य अकादमी की सूची में शामिल की गई थीं.

पिछले कुछ दशकों के दौरान भारत में अंग्रेजी में लिखे जा रहे साहित्य को बहुत उछाला गया है. बहुत अधिक हाइप दी गई है. क्या हमारी भाषाओं का साहित्य भी इससे प्रभावित होता है?

हमारे देश में अंग्रेजी में कुछ बहुत अच्छी चीजें लिखी गई हैं. लेकिन हमारी अपनी भारतीय भाषाओं में भी बहुत ही अच्छा साहित्य रचा जा रहा है. इसलिए अंग्रेजी का ऐसा कोई खास असर नहीं है. इतना जरूर है कि अब हर लेखक चाहता है कि उसका अंग्रेजी में अनुवाद हो.

पिछले तीन-चार दशकों के दौरान प्रत्येक सरकार पुस्तकों पर प्रतिबंध लगाती आई है. पिछले दिनों तो पैंग्विन ने खुद ही अमेरिकन इतिहासकार वेंडी डोनिगर की पुस्तक वापस ले ली. ऐसे में आप अपने अन्य लेखक मित्रों से क्या कहना चाहेंगे?

धारा के विरुद्ध तैरो. सभी महान लेखकों ने यह किया है. काफ्का, कामू....किसी को भी ले लीजिये. वे सभी धारा के विरुद्ध तैरे. अंग्रेजी के रोमांटिक कवियों को देखिये. ब्लैक औद्योगिक क्रांति के बहुत बड़े आलोचक थे हालांकि यह क्रांति पश्चिमी सभ्यता के लिए सभी कुछ ला रही थी. लेकिन ब्लैक इसके खिलाफ थे. वह इसके साथ जुड़ी क्रूरता और हिंसा के साक्षी थे और उन्होंने अपने विरोध को अभिव्यक्ति दी. वर्ना औद्योगिक क्रांति तो बहुत बड़ी चीज थी.

बहुत दिनों से इस पर बहस चली आ रही है कि लेखकों को किसी सुपरिभाषित विचारधारा से लैस होना चाहिए या नहीं. आपका क्या विचार है साहित्य में विचार के बारे में?

नहीं, मैं किसी सुपरिभाषित विचारधारा के पक्ष में नहीं हूं. मैं चाहता हूं कि लेखक के पास उसकी अंतश्चेतना होनी चाहिए, ऐसी अंतश्चेतना जो यथार्थ को नकारे नहीं बल्कि जो कुछ भी उपलब्ध है, उसे स्वीकार करे. यह अंतश्चेतना बहुत कोमल होती है. विचारधारा उसे सख्त बनाएगी और बहुत-सी चीजों को देखने से रोकेगी. वह उसे ओपिनियनेटेड यानि मताग्रही बनाएगी और लेखक को मताग्रही नहीं होना चाहिए.

इंटरव्यू: कुलदीप कुमार
संपादनः आभा मोंढे