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साफ पानी की जुगत

१२ अप्रैल २०१४

3 साल पहले यूरोप में ईकोलाई बैक्टीरिया के संक्रमण से कई लोगों की मौत हो गई. डॉक्टर इस असमंजस में पड़े रहे कि यह आया कहां से. गंदगी के कारण बैक्टीरिया पानी में मिल जाता है. डीएनए की जांच कर इसे खत्म करने की कोशिश हो रही है

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तस्वीर: Kerry Skyring

किसी भी समस्या को सुलझाने का सबसे अच्छा तरीका ढूंढने के लिए पहले उसकी जड़ तक पहुंचना बहुत जरूरी है. इसी तरह प्रदूषित पानी से होने वाली तमाम बीमारियों से बचने के लिए, उन्हें फैलाने वाले बैक्टीरिया के स्रोत तक पहुंचना भी जरूरी है. ऑस्ट्रिया की विएना यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्नोलॉजी ने इसके लिए एक नई तकनीक ढूंढ निकाली है.

टेस्टिंग की इस तकनीक को अमेरिका, यूरोप और एशिया के भी कई देशों में टेस्ट किया गया है, जहां सफलता से बैक्टीरिया के स्रोत को पहचाना जा सका. अफ्रीका और तिब्बत जैसे इलाकों में भी टेस्ट उतने ही प्रभावी साबित हुए. इतनी सटीक पहचान मिलने का कारण यह है कि इस टेस्ट में पानी के सैंपल में मिले हुए जीवों के मल के साथ आई हुई कोशिकाओं के डीएनए की जांच की जाती है. सैंपल वाले डीएनए के साथ डाटाबैंक में मौजूद तमाम तरह के डीएनए की तुलना की जाती है, जिससे प्रदूषण फैलाने के लिए जिम्मेदार जानवर की सही पहचान हो पाती है. इसके बाद उस जिम्मेदार स्रोत की गतिविधियों पर नियंत्रण करने से समस्या बहुत प्रभावी ढंग से सुलझाई जा सकती है.

बैक्टीरिया की जांच

भारत जैसे कई विकासशील देशों में सबको साफ पानी मिलना तो दूर, पर्याप्त पानी ही नहीं मिल पाता. नदियों और दूसरे प्राकृतिक स्रोतों से जो पानी मिलता है उसमें भी कई तरह के बीमारी फैलाने वाले बैक्टीरिया और जीवाणु होते हैं. ऐसे में वैज्ञानिकों ने ऐसी तकनीक विकसित की है जिससे ना सिर्फ यह पता चलेगा कि पानी में बीमार करने वाले कौन से बैक्टीरिया मौजूद हैं बल्कि यह भी पता चलेगा कि वे बैक्टीरिया आए कहां से. स्रोत का पता चलने पर उसका सही तरीके से निपटारा करना संभव हो पाएगा.

बीमारी फैलाने वाले ईकोलाई और इंटेरोकॉक्की जैसे प्रमुख बैक्टीरिया इंसान और जानवरों की आंत में मिलते हैं. यह मल के रास्ते पानी से होते हुए दूर दूर तक संक्रमण फैलाते हैं. इंसान की आंत में पाए जाने वाले कुल बैक्टीरिया में से करीब 10 से 20 फीसदी सिर्फ ईकोलाई और इंटेरोकॉक्की जैसे बैक्टिरॉइड्स ही होते हैं. अभी तक प्रचलित तकनीकों से पानी में इन बैक्टीरिया की जांच तो की जा सकती थी लेकिन यह पता करना संभव नहीं था कि वे आए कहां से. यह भी पता नहीं चल पाता था कि उनको फैलाने के लिए आसपास की इंसानी आबादी जिम्मेदार है या फिर उस क्षेत्र में पाया जाने वाला कोई जंगली जानवर.

बड़ा खर्च

अभी तक समस्या यह रही है कि टेस्ट के लिए सैंपल को लैब तक लाना होता है और इसमें समय और संसाधन काफी खर्च होते हैं. फिलहाल टेस्ट में करीब तीन घंटे लगते हैं. विएना यूनिवर्सिटी में इस प्रोजेक्ट के प्रमुख प्रोफेसर रॉबर्ट माख बताते हैं, "अब कोशिश यह है कि सैंपल को लैब तक ले जाने की जरूरत ही ना रहे. पानी के स्रोत के पास ही एक आसान से टेस्ट से प्रदूषण के स्रोत का पता चल पाए और वो भी तुरंत."

इसके साथ ही इस टेस्ट को सस्ता बनाने की भी कोशिश हो रही है. फिलहाल इस जांच के लिए काम में आने वाली पीसीआर मशीन की कीमत करीब 20 हजार यूरो है. भविष्य में इस टेस्ट के लिए करीब 100 यूरो तक की कीमत वाली मशीनें बनाने की तरफ काम चल रहा है. इसका प्रारंभिक मॉडल भी तैयार है. साथ ही आगे चलकर जानवरों के अलावा चिड़ियों की फैलाई गंदगी को पहचानने की भी कोशिश चल रही है, जो कई बार पानी में बीमारी वाले बैक्टीरिया छोड़ने के लिए जिम्मेदार होते हैं.

रिपोर्ट: ऋतिका राय

संपादन: ईशा भाटिया