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जम्मू-कश्मीर त्रासदी का सबक

१८ सितम्बर २०१४

जिन लोगों ने यह उम्मीद की थी कि पिछले साल जुलाई में उत्तराखंड में बारिश, भूस्खलन और बाढ़ के कारण मची तबाही से केंद्र सरकार और राज्य सरकारों ने भविष्य के लिए सबक सीखा होगा, उनके हाथ सिर्फ निराशा ही लगी है.

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Pakistan Überschwemmung 13.09.2014
तस्वीर: AFP/Getty Images/A. Ali

जम्मू-कश्मीर में लगातार बारिश होने के कारण आयी अभूतपूर्व बाढ़ ने एक बार फिर यह कड़वी सचाई उजागर कर दी है कि भारत में शासन और प्रशासन, किसी को भी जनता की सुध नहीं है. उस समय राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने कहा था कि भविष्य में इस तरह की प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए उसने इस संकट से कई सबक सीखे हैं. लेकिन जम्मू-कश्मीर में जब अभूतपूर्व प्राकृतिक विपदा आयी, तो प्राधिकरण सिरे से गायब रहा.

इसका एक बड़ा कारण यह है कि प्राधिकरण के उपाध्यक्ष एम शशिधर रेड्डी और पांच सदस्यों, केएम सिंह, केएन श्रीवास्तव, जेके बंसल, बी भट्टाचार्जी और के सलीम अली, ने इस वर्ष 17 जून को अपने पदों से इस्तीफा दे दिया था क्योंकि वे सभी पिछली सरकार द्वारा नियुक्त किए गए थे. यह भी एक अजीब बात है कि इतनी महत्वपूर्ण संस्था के इन खाली पदों को आज तक भी भरा नहीं गया है. नेतृत्वविहीन प्राधिकरण स्वाभाविक रूप से अपनी उचित भूमिका नहीं निभा पाया क्योंकि वही योजना बना कर राष्ट्रीय आपदा मोचन बल जैसी एजेंसियों को उन पर अमल करने का निर्देश देता है. लेकिन जम्मू-कश्मीर में आयी मुसीबत के समय ऐसा नहीं हो पाया.

'सरकार को लकवा मार गया'

राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण तो गायब रहा ही, जम्मू-कश्मीर आपदा प्रबंधन प्राधिकरण का भी कहीं अता-पता नहीं है. इस प्राधिकरण के अध्यक्ष राज्य के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला हैं. उन्होंने अंग्रेजी दैनिक 'इंडियन एक्सप्रेस' के मुखप्रष्ठ पर प्रकाशित अपने लंबे लेख में स्वयं स्वीकार किया है कि उनकी सरकार और उसकी पूरी मशीनरी को लकवा मार गया था और कोई भी इस प्रकार की स्थिति से निपटने के लिए तैयार नहीं था, क्योंकि किसी ने भी इस प्रकार की स्थिति की कल्पना ही नहीं की थी.

उमर अब्दुल्ला ने अपने लेख में विस्तार से बताया है कि किस प्रकार संपर्क के सभी साधन समाप्त हो गए थे, हर जगह पानी घुस गया था और प्रशासन पूरी तरह से लुंजपुंज हो गया था. ऐसे में सेना के अधिकारियों और जवानों ने अपनी जान पर खेलकर राहत और बचाव कार्य में हिस्सा लिया. कोई भी राजनीतिक नेता अपनी गलती नहीं मानता, सो उमर अब्दुल्ला ने भी नहीं मानी है. उन्होंने सारा जोर यह दर्शाने में लगा दिया है कि जिस पैमाने पर बारिश और बाढ़ आयी, उससे निपटने की क्षमता नहीं थी लेकिन फिर भी बिना हतोत्साहित हुए राज्य सरकार ने अपना कर्तव्य निभाया. वे इस तथ्य को भी दबा गए कि भारतीय मौसमविज्ञान विभाग ने कई दिन पहले ही भविष्यवाणी कर दी थी कि भारी बारिश होने वाली है पर राज्य सरकार के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी.

जरूरी सवाल

लेकिन क्या उनके इस दावे में कोई दम है? अपने लेख में उन्होंने एक बार भी राज्य के आपदा प्रबंधन प्राधिकरण का जिक्र तक नहीं किया है, जिसके वे स्वयं अध्यक्ष हैं. यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि पिछले साल उत्तराखंड में मची तबाही के बाद भी जम्मू-कश्मीर सरकार क्यों यह कल्पना नहीं कर पायी कि ऐसी ही स्थिति यहां भी पैदा हो सकती है? क्यों इस एक साल के समय को ऐसी किसी भी भावी आपदा का सामना करने की क्षमता विकसित करने के लिए इस्तेमाल नहीं किया गया?

इसके साथ ही यह सवाल भी जुड़ा है कि पर्वतीय राज्यों में हो रहे विकास के चरित्र और उसकी दिशा के बारे में केंद्र और राज्य सरकारों ने पुनर्विचार शुरू क्यों नहीं किया? न केवल पर्यावरणवादी बल्कि नगरयोजना विशेषज्ञ भी बहुत दिनों से यह कहते आ रहे हैं कि निरंकुश और अनियोजित ढंग से हो रहा निर्माण कार्य एवं खनन के कारण पहाड़ों के पर्यावरण पर बेहद प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है और बाढ़ एवं भूस्खलन का खतरा बढ़ता जा रहा है.

कंक्रीट के जंगल

लेकिन सभी पर्वतीय राज्यों में अब उसी तरह के भवनों का निर्माण किया जाने लगा है जैसे भवन दिल्ली या मुंबई जैसे महानगरों में बनाए जाते हैं. भवन-निर्माण में पारंपरिक निर्माण सामग्री और स्थापत्य का प्रयोग अब लगभग समाप्त हो चला है और चारों तरफ कंक्रीट के जंगल उगते नजर आते हैं. यह तथ्य शायद बहुत लोगों को पता नहीं है कि श्रीनगर की प्रसिद्ध डल झील पिछले पांच-छह दशकों के दौरान सिकुड़ कर अपने मूल आकार का केवल पंद्रह प्रतिशत रह गयी है. पहले वह 75 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैली थी लेकिन अब सिकुड़ कर केवल 12 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में ही बची है. इसका कारण उसके आसपास होने वाला निर्बाध निर्माण और अतिक्रमण है.

जम्मू-कश्मीर की त्रासदी से भी यदि सबक न लिया गया, तो ऐसी त्रासदियां थोड़े-थोड़े अंतराल के बाद होती रहेंगी. उत्तराखंड में प्रकृति का तांडव होने के एक साल बाद ही जम्मू-कश्मीर में तबाही मच गयी. आशा की जानी चाहिए कि केंद्र और राज्य सरकारें भावी संकट से निपटने के लिए कारगर योजनाएं बनाएंगी और उन पर अमल भी करेंगी.

ब्लॉग: कुलदीप कुमार

संपादन: ईशा भाटिया