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बंगाल में वर्चस्व की जंग

प्रभाकर, कोलकाता२८ अक्टूबर २०१४

तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी तीन साल पहले लेफ्टफ्रंट के कथित कुशासन और विपक्ष के खिलाफ हिंसा पर अंकुश लगाने के मकसद से राज्य की सत्ता पर काबिज हुई थी. लेकिन तीन साल बाद भी राज्य की हालत जस की तस है.

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तस्वीर: Dibyangshu Sarkar/AFP/Getty Images

अब तृणमूल कांग्रेस भी विपक्षी राजनीतिक दलों के प्रति वैसा ही हिंसक रवैया अख्तियार कर रही है जैसा किसी दौर में लेफ्टफ्रंट ने अपनाया था. खासकर इस साल हुए लोकसभा चुनावों के पहले से ही राज्य के विभिन्न हिस्सों में राजनीतिक वर्चस्व की जो जंग शुरू हुई है उसने अब तक दर्जनों लोगों की बलि ले ली है. तृणमूल के इशारे पर पुलिस और प्रशासन ने भी ऐसे मामलों में चुप्पी साध रखी है. चौतरफा आलोचना के बावजूद ममता सरकार ने अब तक इस राजनीतिक हिंसा को रोकने की दिशा में कोई ठोस पहल नहीं की है.

ताजा मामला

राजनीतिक हिंसा का ताजा मामला बीरभूम जिले का है. वहां पारुई से सटे माकड़ा गांव पर कब्जे की होड़ में तृणमूल कांग्रेस और भाजपा समर्थकों के बीच हुई हिंसा में तीन लोगों की मौत हो गई. इनमें दो भाजपा समर्थक थे और एक तृणमूल कांग्रेस समर्थक. दो सप्ताह पहले भी इसी इलाके में एक भाजपा कार्यकर्ता की मौत हो गई थी. अभी पिछले सप्ताह एक गांव में बमों का जखीरा होने की सूचना पाकर मौके पर पहुंचे पुलिस वालों पर भी बमों से हमले किए गए. इनमें एक पुलिस अधिकारी घायल हो गया.

जिले में कोई महीने भर से इन दोनों दलों के बीच हिंसक झड़पें हो रही हैं. लेकिन पुलिस या प्रशासन ने इनको कभी गंभीरता से नहीं लिया. यही वजह है कि सोमवार को दोनों दलों के समर्थकों के बीच घंटों गोलियां चलीं और बम फेंके गए. बावजूद इसके पुलिस बल समय पर मौके पर नहीं पहुंचा वरना तीन जानें बचाई जा सकती थीं. मरने वालों में दो युवकों की उम्र क्रमशः 15 और 17 साल है. इसी से समझा जा सकता है कि राजनीतिक दलों के बहकावे में आ कर कैसे कम उम्र के किशोर इस हिंसा में पिस रहे हैं.

वजह

दरअसल, राजनीतिक वर्चस्व ही इस हिंसा की प्रमुख वजह है. बंगाल में राजनीतिक हिंसा का लंबा इतिहास रहा है. पहले ज्योति बसु के शासनकाल के दौरान सीपीएम के लोग भी कांग्रेस के खिलाफ राजनीतिक हिंसा के इसी असरदार हथियार का इस्तेमाल करते थे. बाद में तृणमूल कांग्रेस के खिलाफ भी ऐसा ही हुआ. इसलिए अब सत्ता में आने के बाद तृणमूल कांग्रेस नेताओं ने भी इस असरदार हथियार को अपना लिया है. शुरूआती दौर में उनके निशाने पर सीपीएम के लोग रहे. लेकिन राज्य के ज्यादातर इलाकों में सीपीएम का सूपड़ा साफ होने के बाद अब राज्य में तेजी से कदम जमा रही भाजपा उसके निशाने पर है.

यह महज संयोग नहीं है कि यह हिंसा उन इलाकों में ही हो रही है जहां पिछले लोकसभा चुनावों में भाजपा का प्रदर्शन तृणमूल कांग्रेस के मुकाबले बेहतर रहा था. भाजपा ने अपने लगातार बेहतर प्रदर्शन की वजह से अब लेफ्टफ्रंट को पीछे धकेलते हुए राज्य में नंबर दो राजनीतिक दल के तौर पर अपनी दावेदारी पुख्ता कर ली है. उसने तृणमूल कांग्रेस के कई गढ़ ढहा दिए हैं. यही वजह है कि तृणमूल कांग्रेस को भाजपा से खतरा महसूस होने लगा है. इस खतरे को भांपते हुए ही उसने भाजपा के खिलाफ अघोषित युद्ध का एलान कर दिया है और इसे पार्टी के शीर्ष नेतृत्व का भी मौन समर्थन हासिल है. शीर्ष नेताओं के इशारे पर पुलिस और प्रशासन इन इलाकों में महज दर्शक की भूमिका में है. पुलिस की स्थिति इसी बात से समझी जा सकती है कि अपने अधिकारी पर हमले के बावजूद उसने सत्तारुढ़ दल से जुड़े लोगों पर हाथ नहीं डाला है.

राज्य में अगले साल ही कोलकाता नगर निगम समेत कई स्थानीय निकायों के लिए चुनाव होने हैं. कोलकाता नगर निगम को मिनी विधानसभा चुनाव कहा जाता है और इसका असर विधानसभा चुनावों पर भी होता है. उसके अगले ही साल विधानसभा चुनाव होने हैं. तृणमूल को डर है कि तेजी से उभरती भाजपा उन चुनावों में कहीं पार्टी को राजनीतिक हाशिए पर न धेकल दे. पहले ही शारदा चिटफंड घोटाले और बर्दवान विस्फोट की वजह से तृणमूल कांग्रेस बैकफुट पर है. इसलिए प्यार, युद्ध और राजनीति में सब जायज होने की कहावत पर अमल करते हुए वह अब पुलिस और प्रशासन की सहायता से अपने पैरों तले खिसकती जमीन को बांधे रखने की कवायद में जुटी है.

विपक्षी दलों का आरोप

विपक्षी राजनीतिक दलों ने राज्य में इस हिंसा के लिए तृणमूल कांग्रेस को ही जिम्मेदार ठहराया है. भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष राहुल सिन्हा कहते हैं कि पार्टी की बढ़ती लोकप्रियता और अल्पसंख्यकों में बढ़ते समर्थन से तृणमूल कांग्रेस डर गई है. इसलिए वह हिंसा का सहारा ले रही है. कांग्रेस और सीपीएम ने भी इस हिंसा के लिए तृणमूल को जिम्मेदार ठहराते हुए आरोप लगाया है कि इसे पार्टी के शीर्ष नेताओं की शह हासिल है. तृणमूल नेतृत्व के इशारे पर पुलिस और प्रशासन ने भी हिंसा की घटनाओं के प्रति आश्चर्यजनक रूप से चुप्पी साध रखी है.

राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि राजनीतिक वर्चस्व की यह जंग अभी और तेज होगी. मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने फिलहाल इनको रोकने की दिशा में कोई ठोस पहल नहीं की है. चोरी और सीनाजोरी की तर्ज पर तृणमूल के नेता उल्टे इस हिंसा के लिए कभी भाजपा तो कभी सीपीएम को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं. इसलिए राज्य में लगभग रोजाना किसी न किसी इलाके से हिंसा की खबरें आ रही हैं. कानून व व्यवस्था के मामले पर चौतरफा किरकिरी झेल रही ममता सरकार क्या इन घटनाओं को रोकने की दिशा में कोई ठोस कदम उठाएगी? फिलहाल तो इसके आसार कम ही हैं. ऐसे में आने वाले दिनों में इस राजनीतिक हिंसा में कई और बेकसूरों के बलि चढ़ने का अंदेशा है.