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प्रशासनिक सुधारों का मकसद

२१ अगस्त २०१४

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने सत्ता में आने के बाद बड़े नीतिगत बदलाव भले ही न किए हों, लेकिन प्रशासनिक कामकाज के तरीकों में सुधार की कोशिश जरूर की है. जरूरत सरकारी दफ्तरों में कार्य-संस्कृति को बदलने की है

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तस्वीर: Reuters

सरकार के प्रयासों का मकसद यह है कि लोगों को लगे कि सरकार चुनावी वादा पूरा कर रही है और ‘अच्छे दिन' वाकई आने लगे हैं. पहला फैसला तो स्वयं मोदी ने ही लिया था. इस माह की शुरुआत में उन्होंने सभी केन्द्रीय मंत्रालयों और राज्य सरकारों को निर्देश दिया था कि वे दस्तावेज प्रस्तुत करने वाले व्यक्ति द्वारा स्व-सत्यापित दस्तावेज स्वीकार करना शुरू करें और गजेटेड अधिकारी द्वारा उनके सत्यापन की अनिवार्यता समाप्त करें. प्रक्रिया के अंत में किसी भी व्यक्ति को मूल दस्तावेज दिखाने होंगे ताकि उन्हें पहले प्रस्तुत दस्तावेजों के साथ मिलाया जा सके. इसी तरह कानूनन बाध्यता की स्थिति में ही हलफनामे दाखिल किए जाएं, सामान्य स्थिति में नहीं और उन्हें नोटरी द्वारा सत्यापित कराने की अनिवार्यता को समाप्त किया जाए. द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग ने भी इसी आशय की सिफारिशें की थीं.

अभी तक इन फैसलों पर अमल होना शुरू नहीं हुआ है लेकिन इस बारे में सरकार की ओर से औपचारिक आदेश जारी होने के बाद इसका निश्चय ही व्यापक असर होगा. हर आम आदमी की पहुंच गजेटेड अधिकारी तक हो, यह बड़े शहरों तक में संभव नहीं है. गांव-कस्बों में रहने वालों की पहुंच तो अक्सर गजटेड अधिकारियों तक होती ही नहीं है और उन्हें उनसे दस्तावेज स्त्यापित कराने में एड़ी–चोटी का जोर लगाना पड़ता है. अभी तक स्थिति यह है कि स्कूल-कॉलेज में प्रवेश लेते समय भी छात्र-छात्राओं को अपने प्रमाणपत्र और अंकपत्र की प्रतिलिपि किसी गजटेड अफसर से अटेस्ट कराकर ही देनी होती है.

इसी तरह हर किस्म का कानूनी दस्तावेज, चाहे वह बैंक में जमा करना हो या किसी अन्य दफ्तर में, नोटरी द्वारा सत्यापित कराया जाना जरूरी है. यह अनिवार्यता समाप्त होने से आम आदमी को वाकई काफी राहत मिलेगी. हालांकि मोदी द्वारा इस विषय में घोषणा किए लगभग तीन सप्ताह होने को हैं, लेकिन अभी तक इस पर अमल शुरू नहीं हुआ है. इसके पीछे संभवतः औपचारिक आदेश जारी न होना मुख्य कारण है.

अब मोदी सरकार में सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी ने घोषणा की है कि केंद्र सरकार सभी क्षेत्रीय परिवहन कार्यालय (आरटीओ) बंद करेगी क्योंकि ये भ्रष्टाचार का केंद्र बन गए हैं और यहां आम आदमी को बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ता है. एजेंट की सहायता लिए बिना और उसे पैसा दिये बिना कोई भी काम नहीं होता. गडकरी की इस घोषणा का भी स्वागत हुआ है, लेकिन इसके साथ ही सवाल यह भी उठता है कि इस तरह की स्थिति तो कमोबेश हर सरकारी दफ्तर में है. फिर केवल आरटीओ को बंद करने से क्या हासिल होगा?

जरूरत तो दफ्तरों के कामकाज के तौर-तरीकों को और वहां की कार्य-संस्कृति को बदलने की है और भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने की है. सभी सरकारी दफ्तर तो बंद नहीं किए जा सकते. जहां तक आरटीओ का सवाल है, उसकी जगह भी किसी और नाम से एक और दफ्तर खोलना पड़ेगा जो ड्राइविंग लाइसेंस जारी करने और इसी तरह के अन्य काम करे. इसलिए दफ्तर बंद करना स्थायी और व्याहारिक विकल्प नहीं है.

नरेंद्र मोदी सरकार ने योजना आयोग को भी बंद करने का फैसला लिया है. यह भी कुछ-कुछ इसी तरह का फैसला है. जहां तक पंचवर्षीय योजनाओं का सवाल है, उनकी प्रासंगिकता पर निश्चित रूप से सवालिया निशान लग चुके हैं क्योंकि यह आर्थिक उदारीकरण का दौर है जिसमें सरकार की पूरी कोशिश है कि अर्थव्यवस्था के नियमन और नियोजन में उसकी भूमिका कम से कम रहे. लेकिन योजना आयोग की केवल यही भूमिका नहीं थी कि वह पंचवर्षीय योजनाएं तैयार करे. वह सरकार के लिए सामाजिक एवं आर्थिक क्षेत्रों में सूचनाएं और आंकड़े इकट्ठा करने और उनका विश्लेषण करने का काम भी करता है.

मोदी सरकार उसका पुनर्गठन करके उसकी संरचना में आवश्यक एवं वांछित परिवर्तन ला सकती थी, लेकिन उसने उसे बंद करना ही बेहतर समझा. संभवतः इस निर्णय के पीछे कुछ राजनीतिक कारण भी रहे हों. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आधारभूत ढांचे, ऊर्जा, ग्रामीण विकास और अन्य नीतिगत विषयों पर अभी भी योजना आयोग से ही सूचनाएं मंगा रहे हैं और नेहरू युग का प्रतीक माने जाने वाली यह संस्था पहले की तरह ही काम कर रही है. इसका अर्थ यह है कि भले ही इसका नाम बदल दिया जाए, लेकिन इस प्रकार के आयोग की जरूरत बनी रहेगी. आंध्र प्रदेश-तेलंगाना विभाजन की रूपरेखा बनाने में योजना आयोग ने केन्द्रीय भूमिका निभाई थी. राज्यों के लिए आर्थिक संसाधन आवंटन करने में भी इसकी प्रमुख भूमिका रहती थी. देखना होगा कि इनके लिए नई सरकार किस किस्म की संस्था का गठन करती है.

ब्लॉग: कुलदीप कुमार

संपादन: महेश झा