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पुलिस के बुरे बर्ताव से जर्मनी सकते में

ग्रैहम लूकस/आरआर१८ मई २०१५

जर्मन टीवी की एक रिपोर्ट में पुलिस के हाथों शरणार्थियों से दुर्व्यवहार होता देख देश हैरान है. आरोपों पर पुलिस ने कोई टिप्पणी नहीं की है लेकिन एक पुलिस अधिकारी के खिलाफ जांच हो रही है. डीडब्ल्यू के ग्रैहम लूकस की टिप्पणी.

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तस्वीर: Reuters/Morris Mac Matzen

जर्मन पुलिस अधिकारियों के हाथों शरणार्थियों के दुर्व्यवहार की खबरें बेहद चौंकाने वाली हैं और उनके बारे में जनता की आम राय से बिल्कुल मेल नहीं खातीं. इसलिए तथ्यों को पता करना बेहद महत्वपूर्ण है. ऐसे दो मामलों की जांच कर रहे अधिकारियों ने एक अस्पष्ट सा वक्तव्य जारी कर बताया है कि पुलिस बर्ताव की जांच अभी प्रारंभिक चरण में है और किसी नतीजे पर पहुंचना संभव नहीं है. उन्होंने कथित रूप से प्रताड़ित लोगों की पहचान बताने से भी इंकार कर दिया. सरकारी वकील ने इस बात की पुष्टि की है कि आरोपों के आधार पर एक पुलिस अधिकारी के घर की तलाशी ली गई है. उन्होंने यह बताने से भी इंकार कर दिया कि इस पूरे मामले में कितने पुलिस अधिकारी जुड़े हैं.

यह पूरा प्रकरण इसलिए और भी परेशान करने वाला है क्योंकि अभी पिछले ही हफ्ते संयुक्त राष्ट्र ने श्रम और मकान बाजार में अल्पसंख्यकों के प्रति बढ़ते भेदभाव के लिए जर्मनी की आलोचना की थी और मुसलमान-विरोधी भावनाओं और शरणार्थियों के खिलाफ हिंसा की निंदा की थी. यूएन ने जर्मन प्रशासन से जेनोफोबिया या विदेशी द्वेष को रोकने के लिए प्रयास बढ़ाने की अपील की है. यूएन के इस आरोपों पर कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए क्योंकि हाल के महीनों में पूर्वी जर्मनी के ड्रेसडेन में हुए पेगीडा जैसे विदेशी-विरोधी आंदोलनों ने विदेशों में जर्मनी की साख को काफी प्रभावित किया है. इसके अलावा, हाल ही में एक भूमिगत नवनाजी गिरोह के खिलाफ मुकदमा भी चल रहा है जिस पर 11 सालों में नौ प्रवासियों और एक पुलिसकर्मी की हत्या का आरोप है. ऐसे मामलों को देखते हुए सवाल उठ रहे हैं कि प्रशासन जर्मनी में उग्र दक्षिणपंथी लोगों से निपट पाने में कितनी प्रभावी और तत्पर रहा है. जर्मन सरकार ने भी स्वीकार किया है कि जर्मनी में नस्लवाद अब केवल उग्र दक्षिणपंथी खेमों में ही नहीं बल्कि समाज के हर हिस्से में दिखने लगा है.

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हनोवर में कथित पुलिस बर्बरता की घटना और चिंतित करती है क्योंकि इसमें लिप्त अधिकारियों को लगा कि उनसे कोई उनके किए का हिसाब नहीं लेगा. दुर्व्यवहार का पहला मामला मार्च 2014 का और दूसरा इसके छह महीने बाद का है. बताया गया है कि पुलिस अधिकारियों ने अपने मोबाइल फोनों से पीड़ितों की तस्वीरें खींचीं और उन्हें अपने साथियों से व्हाट्सऐप के जरिए साझा भी किया. इनमें से एक पीड़ित अफगानिस्तान का और दूसरा मोरक्को का बताया गया है.

फोटो के साथ भेजे संदेशों से साफ है कि हिंसक हरकतें पुलिस स्टेशन में अंजाम दी गईं. अगर दुर्व्यवहार के यह सारे आरोप सच साबित होते हैं तो इन दोनों मामलों में विदेशी शरणार्थियों के मानव अधिकारों की उपेक्षा, नस्लवादी रवैये और सांप्रदायिक भेदभाव की पुष्टि होगी. कई जर्मन लोग इन मामलों को बहुत ही अविश्वास के साथ देखेंगे क्योंकि दुनिया के दूसरे हिस्सों से ऐसी खबरें तो आती रहती हैं, लेकिन जर्मनी में ऐसा होना अविश्वसनीय लगता है.

कुछ बेहद अहम सवाल खड़े होते हैं जिनका जवाब पाना जरूरी है: टीवी में दिखाए जाने से पहले ही पुलिस ने खुद इस मामले की जांच क्यों नहीं शुरु की? पुलिस विभाग के वरिष्ठ अधिकारियों और सरकारी वकील को इन आरोपों के बारे में कितने पहले से पता था? कितने पुलिसकर्मी इसमें संलिप्त हैं? आरोपी पुलिसकर्मियों को ऐसा क्यों लगा कि कोई उन्हें चुनौती नहीं देगा? अधिकारियों को इन सब बातों का जवाब देना होगा.

हमें ध्यान देना चाहिए कि भले ही इस वक्त यह एक अलग थलग सी घटना लग रही हो, लेकिन इसका कोई प्रमाण नहीं कि इस किस्म का नस्लवादी व्यवहार या शरणार्थियों के साथ दुर्व्यवहार बड़े स्तर पर नहीं हो रहा. जरूरी है कि प्रशासन इस आरोपों की सावधानी से जांच करे और दोषी पुलिसकर्मियों को कड़ी सजा दिलाए. एक सभ्य समाज के रूप में जर्मनी की साख दांव पर लगी है.

ब्लॉग: ग्रैहम लूकस/आरआर