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न्यायपालिका को ही इंसाफ की दरकार

२२ जुलाई २०१४

भारत में उच्च अदालतों को कार्यपालिका और विधायिका के विपरीत भ्रष्टाचार से मुक्त माना जाता है. मगर सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व न्यायाधीश के खुलासे ने इंसाफ के मंदिर में भी भ्रष्टाचार के संकट पर परोक्ष चेतावनी दे दी है.

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तस्वीर: picture-alliance/dpa

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने जजों की नियुक्ति में भ्रष्ट राजनेताओं के प्रभावी दखल का खुलासा कर समूचे तंत्र को कारगर बनाने की बीते 65 सालों की यात्रा पर सवाल खड़े कर दिए हैं. न्यायपालिका में भ्रष्टाचार का यह एकमात्र उदाहरण नहीं है मगर इससे देश की शीर्ष अदालत में जजों की निष्ठा संदेह के घेरे में आ गई है. यह मामला सोचने पर मजबूर करता है कि अगर सर्वोच्च अदालत के जजों का समूचा मंडल ही भ्रष्ट राजनीति के आगे झुकने को मजबूर है तो फिर हर तरफ से निराश लोग न्याय के इन मंदिरों में इंसाफ की आस लेकर कैसे आ पाएंगे.

परतों में लिपटा मामला

वर्तमान में भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष जस्टिस काटजू ने साल 2004 में मद्रास हाईकोर्ट के एक अतिरिक्त न्यायाधीश को स्थाई करने के फैसले पर सवाल किए हैं. उनका दावा है कि मद्रास में उक्त जज को स्थाई कर दिल्ली में केन्द्र सरकार को गिरने से बचाने की कीमत चुकाई गई. उस समय केन्द्र में संप्रग गठबंधन की सरकार अपने वजूद को बचाने के लिए सहयोगी दलों की हर जायज-नाजायज मांग मानने को मजबूर थी. चौंकाने वाली बात यह भी है कि सरकार की इस मजबूरी का फायदा उक्त जज ने एक बार नहीं बल्कि तीन बार उठाया.

और तो और भारत के तीन मुख्य न्यायाधीशों की अध्यक्षता वाले कोलेजियम को तीनों बार सरकार की सिफारिशों को मानकर उक्त जज को संवैधानिक उन्मुक्ति का लाभ देना पड़ा. यह सब तब हुआ जब जस्टिस काटजू खुद मद्रास हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस थे. मामले की गंभीरता को नजरअंदाज करने की मोटी परत तब चढ़ गई जब सरकार और कोलेजियम ने उक्त जज के खिलाफ भ्रष्टाचार की शिकायतों को खुफिया ब्यूरो की जांच में तथ्यपरक पाया. बकौल जस्टिस काटजू यह जांच खुद उन्होंने ही कराई थी.

सवालों का घेरा

जस्टिस काटजू के इस खुलासे ने एक नई बहस को जन्म जरूर दिया है मगर वह खुद भी सवालों के घेरे में आने से नहीं बच पाए. इस खुलासे से तिलमिलाए तत्कालीन कानून मंत्री हंसराज भारद्वाज ने उक्त जज का कार्यकाल बढ़ाने की सिफारिश करने की बात को तो मानी है लेकिन साथ ही सवाल उठाया है कि जस्टिस काटजू ने खुलासे के लिए यह समय क्यों चुना है.

बेशक यह सवाल उठना जायज है कि जस्टिस काटजू खुद मुंह बंद किए यह सब होते क्यों देखते रहे. जजों के आचरण संबंधी नियम बतौर जज उन्हें इसके खिलाफ आवाज उठाने के लिए कतई नहीं रोकते हैं. फिर भी उनकी क्या मजबूरी थी, इसका जवाब जस्टिस काटजू ने न तो अपने ब्लॉग में दिया है और ना ही अब तक किसी अन्य माध्यम से दिया है. उन्हें इसका जवाब देना चाहिए ताकि भ्रष्टाचार को आंख मूंद कर देखने को अभिशप्त ईमानदार अधिकारी और जज इसके खिलाफ आवाज उठाने का साहस जुटाने को प्रेरित हो सकें.

आस सिर्फ न्यायपालिका से

विधि आयोग के अध्यक्ष और दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस एपी शाह कहते हैं कि न्यायपालिका को जब तक गोपनीयता के दिनों दिन मोटे होते काले पर्दे में जकड़ा जाएगा तब तक यह समस्या गहराती जाएगी. खासकर जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया पर लगातार उठते सवालों को थामने के लिए इसे यथासंभव पारदर्शी बनाना ही होगा. वरना गोपनीयता का लाभ उठा कर सियासी दल न्यायपालिका को यूं ही ब्लैकमेल करते रहेंगे.

संजीदगी के नितांत अभाव से जूझ रही विधायिका से नाउम्मीद होकर समाज का यथेष्ट चिंतन करने वालों को अब सिर्फ न्यायपालिका से ही ऐसे मामलों पर गंभीर मंथन की आस है. नारी को पूजने की दुहाई देने वाले जिस समाज में महिलाओं की सरेआम लुटती अस्मत पर उसके रहनुमाओं से संजीदा बयानबाजी की भी उम्मीद खत्म हो गई हो उस समाज के लोगों में व्यवस्था के प्रति निराशा के स्तर को मापा जा सकता है. ऐसे में अपने आचरण संबंधी कायदे कानून खुद बनाने के लिए अधिकार सम्पन्न न्यायपालिका को अब अपने लिए ही इंसाफ पाने की स्वतः पहल करनी होगी. विधि द्वारा स्थापित कानून का राज कायम करने में यह पहल मील का पत्थर साबित हो सकती है.

ब्लॉग: निर्मल यादव

संपादन: महेश झा