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नफरत का नया प्रोजेक्ट

१८ सितम्बर २०१३

हिंदी पट्टी में ये मानो हत्या और खून के दिन हैं. कुछ ऐसे तरीके से ये सब हो रहा है कि 1984, 1992, 93 और 2002 के आगे 2013 का यूपी दिखता है. 2014 के आम चुनाव में खून से लथपथ जाता हुआ.

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तस्वीर: picture alliance/AP Photo

देश के प्रधानमंत्री का दौरा वहां हो गया है. भावी प्रधानमंत्री के तौर पर कभी आता कभी छिपता एक सजीला युवक आंसू और अत्याचार की दास्तानें सुनकर स्तब्ध और भावुक है. भावी पीएम बताए जा रहे इठलाए और मद भरे एक कार्यकर्ता का पीएम उम्मीदवारी का ठीक इन्हीं दिनों भारी कशमकश के बीच आखिरकार तिलक किया गया है. हो सकता है वो भी अपने शूरवीरों के साथ जल्द ही मुजफ्फरनगर जाएं. उस शहर और उसके उस देहात में, जो दमनभट्टी की तरह धधक रहे थे. गाड़ियों के काफिलों, सुरक्षा कवचों और हूटरों और दीप्त आकांक्षा में घिरे और सफेद पोशाक पहने विशिष्ट लोगों के लिए मुजफ्फरनगर शायद एक कारखाना होगा. वोट का और ध्रुवीकरण का कारखाना.

लेकिन हम मुजफ्फरनगर को खून का कारखाना बनते हुए देख रहे हैं. इस कारखाने से पहले चीखें निकलती हैं, धुआं उठता है, खून रिसता हुआ उसकी दीवारों से आता है, एक एक कर लाशें गिरने लगती हैं, न जाने कितनी तरह की भयावह आवाजें आने लगती हैं. खेत, नुक्कड़, आंगन सब वधस्थल में बदल गए हैं. इतनी हिंसा और इतनी खूंखारी आ गई है.

उन सारे लोगों, सारी आबादी, सारी जातियों, इलाके की तमाम खापों, मिलीजुली जातीय संस्कृतियों और घुलेमिले धार्मिक पर्यावरण के बीच किसी भूखे बाघ की तरह नफरत घात लगाए बैठी रहती है. वो किसी नाजुक मौके पर धम्म से कूदकर जेहन में और दिलों में उतर जाती है. वहां से उसकी गुर्राहट और उसके नाखून बढ़ते हुए आते हैं.

वरिष्ठ कवि और चिंतक असद जैदी ने लिखा है, "हिंदुस्तान के इतिहास में आज हम एक वीभत्स लेकिन लचर, रक्तरंजित लेकिन उत्सवधर्मी और नंगे लेकिन गाफिल युग में प्रवेश कर चुके हैं. हमारे मध्यवर्ग का विशालतर हिस्सा अब अंतरराष्ट्रीय साम्राज्यवादी कारखाने के फुर्तीले पर संवेदनहीन पुर्जे की तरह काम कर रह है. समाज और इतिहास के प्रति अज्ञान पहले से बढ़ा है. एक जोशीला अज्ञान, जो राजनीतिज्ञ और व्यापारी, अफसर और पेशेवर, शिक्षक, पत्रकार और बौद्धिक वर्ग, सबके बीच एक नयी परिणिति तक पहुंच चुका है. यह एक गुणात्मक परिवर्तन है."

हिंसा और इस बर्बर नंगई के खिलाफ एकजुट होना तो दूर, बोलना ही मानो दूभर हुआ. क्या ऐसा करना संविधान और देश के सम्मान के खिलाफ होता. बस करो, रोको, मत मारो, लौट जाओ की आवाजों को खींचकर जैसे बहुत पीछे कहीं 1947 से पहले के किसी अंधकार में फेंक दिया गया है.

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कितनी हैरानी की बात है कि एक भी ऐसी दिल को छू लेने वाली, घावों पर मरहम लगाने वाली और शांति की एक सच्ची कामना से भरी कोई अपील या बयान किसी नेता या बिरादरी या प्रेम के टेढ़ेमेढ़े रास्तों पर निकल जाने वाले युवाओं को क्रूर सजाएं देने वाली खाप पंचायतों की ओर से नहीं आया. जो लोग लुट गए या घर छोड़ गए न जाने अब लौटेंगे कि नहीं, उनके लिए उनके बच्चों और स्त्रियों के लिए सांत्वना की कोई अपील किसी दिग्गज ने नहीं की. जैसे लोगों को अपने घरों में ही जलने के लिए छोड़ दिया गया है. कोई ये नहीं कहता कि कमजोरों को इस तरह से घेरना बंद करो. नफरत और बेयकीनी से मत घिरो. वर्चस्व और लालच के बाड़े तोड़ो. उन्मादियों को जगह मत लेने दो. सौहार्द को मत कुचलो.

Indien Armee Gewalt in Uttar Pradesh 08.09.2013
तस्वीर: Reuters

मुजफ्फरनगर में हिंदू जातियां और मुसलमान एक वृहद जातीय संरचना के तहत पीढ़ियों से रहते आए थे. देहात में जातीय भीषणताएं बेशक थीं, लेकिन इस तरह के सफाए के प्रोजेक्ट के बारे में कोई सोच भी नहीं सकता था. ये सब 90 के दशक के बाद अचानक शुरू हुआ. एक ओर मुक्त बाजार था तो दूसरी ओर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का मानो एक तत्काल अभियान. इन सबके पीछे कोई बड़ी परियोजना थी. वो सत्ता ही रही होगी.

मुजफ्फरनगर के एक देहात में एक गहरे मित्र का घर है. वो छुट्टियों में अपनी पत्नी और बच्चे के साथ पिछले दिनों घर आए थे. उन्होंने फंसे हुए गले से बताया था कि बहुत सिलसिलेवार और तैयारी के साथ हमले किए गए. उनकी आवाज में हिंसा के कारणों को ठीक ठीक समझ पाने और नए खतरों को भांप लेने की चिंताएं थीं. और वो हिंदूवादी जुनून की डगमगाती और चूर छायाओं को देख पा रहे थे.

झपट का घिनौना विस्तार हो रहा है. कब्जों की नई लड़ाइयां धर्म और जाति के विद्वेषों और नफरतों से लैस हैं. एक तरफ भूमंडलीय कॉरपोरेट अभियान और दूसरी ओर छोटे छोटे स्तरों पर आर्थिक और सामाजिक वर्चस्व पाने के लिए खूंरेजी. कमजोर तबकों की बेदखली का निर्णायक प्रोजेक्ट भी यह है. इसके कार्यकर्ता आपको दिखते नहीं है. ये एक फुसफुसाती हुई व्यवस्था है.

इस बार मुजफ्फरनगर का देहात सांप्रदायिक दबंगई के हवाले जिस तरह हुआ, वो अभूतपूर्व था. इससे खौफ और बढ़ गए हैं. मास मीडिया के औजार, सांप्रदायिक वितृष्णा के नए और घातक हथियार बन गए हैं. फेसबुक नीचताओं का अड्डा बनाया जा रहा है. कौन रोकेगा इसे. बुराई और हिंसा को अपलोड करने की ये कैसी विधा हमने पा ली है. हिंसा और नफरत का ये कैसा अपलोड है. जेहन से लेकर फोन और फेसबुक तक.

ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी

संपादनः अनवर जे अशरफ