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नई एंटीबायोटिक की खोज में लगे वैज्ञानिक

२० अगस्त २०१४

नई एंटीबायोटिक्स की खोज के लिए वैज्ञानिकों ने समुद्र की परतों और रेगिस्तान में कीमती रासायनिक खजानों की तलाश में अहम काम शुरू कर दिया है. वैज्ञानिकों को ऐसे पेड़, बैक्टीरिया और जीवों की तलाश है जिनमें नए रसायन हों.

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तस्वीर: Fotolia/Nenov Brothers

दुनिया भर में जैसे जैसे नई बीमारियों और महामारी का प्रसार हो रहा है वैसे वैसे चिकित्सा वैज्ञानिक और शोधकर्ता नई एंटीबायोटिक्स दवाओं के आविष्कार पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं. वे प्राकृतिक सामग्री के इस्तेमाल से एंटीबायोटिक्स तैयार करने की प्रक्रिया पर खास ध्यान दे रहे हैं. पूर्वी इंग्लैंड के नॉरविच में स्थित जॉन इन्नेस केंद्र (जेआईसी) में शोधकर्ता विशाल कठ कीड़े और इल्ली के पेट से निकाले गए बैक्टीरिया पर बाजी लगा रहे हैं.

सुपर बग को खत्म करने वाली दवा की खोज में नए तरीके से सोचना उनके काम का हिस्सा है. इस खोज की उम्मीद में वैज्ञानिक कीड़ों के भीतर, सागरों की गहराइयों और रेगिस्तान की खाक छान रहे हैं. उम्मीद ये है कि इससे रासायनिक नयापन मिले और नई दवाई खोजने में मदद मिल सके.

आनुवांशिकी विज्ञानी और रसायनशास्त्रियों के साथ काम करने वाले जेआईसी में आण्विक जीव विज्ञान के प्रोफेसर मेर्विन बिब के मुताबिक, "प्राकृतिक उत्पाद औषधीय क्षेत्र से बाहर हो गए हैं, अब वक्त आ गया है कि हम दोबारा इस पर विचार करें. पारिस्थितिक रूप से हमें इसके बारे में सोचना होगा, जिस पर लोग पारंपरिक ढंग से काम नहीं कर पा रहे हैं."

भविष्य में बीमारियों से लड़ने के लिए खोज जरूरी है. अफ्रीका ऐसी झलक पेश कर रहा है जिसमें यह समझ में आता है कि हम जिन दवाओं पर भरोसा करते हैं वह बीमारियों और रोगों से लड़ने का काम करना बंद कर दे तो क्या होता है. दक्षिण अफ्रीका में जिन तपेदिक के मरीजों पर जानी मानी एंटीबायोटिक दवाओं का असर नहीं होने लगता है उन्हें अस्पताल से छुट्टी देकर घर पर मरने के लिए छोड़ दिया जाता है.

पश्चिम अफ्रीका में इबोला के कहर से यह साबित हो रहा है कि ऐसा इसलिए भी हो सकता है कि जानलेवा संक्रमण से लड़ने के लिए कोई दवा ही उपलब्ध नहीं है. हालांकि इबोला को बैक्टीरिया नहीं वायरस फैला रहा है, लेकिन इन दोनों के खिलाफ प्रभावी इलाज तभी संभव है जब उनके खिलाफ इस्तेमाल की जाने वाली दवा उपयोगी साबित हो.

इंसान के लिए खोज जरूरी

ब्रिटेन की यूनिवर्सिटी ऑफ एबरडीन में ऑर्गेनिक केमिस्ट्री के प्रोफेसर मार्शल जैस्पर्स फार्मा सी नाम के अनोखे अनुसंधान परियोजना का नेतृत्व कर रहे हैं. समुद्र की गहराइयों में वे और उनके साथी ऐसे बैक्टीरिया की तलाश कर रहे हैं जिसने कभी सूरज की रोशनी नहीं देखी है. यूरोपीय संघ द्वारा साढ़े नौ लाख यूरो की वित्तीय सहायता से चलने वाली इस परियोजना में जैस्पर्स के साथ अन्य अतंरराष्ट्रीय शोधकर्ता प्रशांत महासागर, आर्कटिक और अंटार्कटिक की तलछट में कीचड़ और गार के नमूनों को खंगालेंगे.

मार्शल जैस्पर्स बताते हैं, "दरअसल हम जीवों की अलग थलग आबादी की तलाश कर रहे है. वे अलग तरह से विकसित हुए होंगे और उम्मीद है कि वे नया रसायन पैदा करेंगे." नई दवा की जब बात होती है तो प्रकृति ऐतिहासिक रूप से इंसान की मदद करती आई है. पश्चिमी चिकित्सा के जनक कहे जाने वाले हिप्पोक्रेट्स विलो की छाल से बने पाउडर का इस्तेमाल दर्द और बुखार के लिए बता गए हैं.

इसी पेड़ के तत्वों के इस्तेमाल से बाद में एस्प्रिन नाम की दवा बनी. यह दवा खून के थक्के और कैंसर से लड़ाई में मददगार साबित होती है. इसी तरह से कई और दवा कंपनियां हैं जो पेड़ और पौधों से निकले अर्क से दवा बनाती आई है. आज आधी से ज्यादा जिन दवाइयों का इस्तेमाल होता आया है वे या तो बैक्टीरिया, जानवर या फिर पेड़ों से प्रेरित हैं या फिर उनसे निकाली गईं हैं.

एए/एमजे (रॉयटर्स)

क्या है एंटीबायोटिक?