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धारा 309 खत्म करने का नफा नुकसान

१३ दिसम्बर २०१४

भारत सरकार ने आत्महत्या की कोशिश करने को जुर्म के दायरे से बाहर करने का बड़ा फैसला किया है. इस फैसले के दूरगामी असर की हकीकत से इंकार नहीं किया जा सकता है.

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तस्वीर: Getty Images/AFP

लंबे समय से विचाराधीन इस फैसले के लाभ हानि को समझने के लिए धारा 309 के इतिहास को जानना जरूरी है. ब्रिटिश काल में बनी भारतीय दंड संहिता में धारा 309 को शामिल कर आत्महत्या के प्रयास को संज्ञेय अपराध घोषित किया गया था. सन 1863 में ब्रिटिश हुकूमत अपनी सहूलियत के मुताबिक आईपीसी बनाई थी. आत्महत्या को जुर्म के दायरे में शामिल करने के पीछे साम्राज्यवादी नीति और भारतीय समाज की विशिष्ट सामाजिक दशा थी. भारतीय दंड संहिता के विश्लेषक सर हेनरी मेन ने लिखा है कि ग्रामीण आबादी की बहुलता वाले भारतीय समाज में पारिवारिक कलह के ऊंचे ग्राफ को देखते हुए आत्महत्या की प्रवृत्ति भी बहुत अधिक थी. इस पर लगाम लगाने के लिए यह प्रावधान आईपीसी में शामिल किया गया था.

भारतीय कानूनी जानकारों का कहना है कि ब्रिटिश सरकार ने यह प्रावधान अपने अत्याचारों को कानून की आड़ में छुपाने के लिए किया था. इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अपराध विज्ञानी प्रो. केके सिंह के मुताबिक ब्रिटिश अधिकारियों के जुल्म का शिकार होने पर पीड़ित की मौत को आत्महत्या में तब्दील कर दिया जाता था जबकि जिंदा बचने पर पीड़ित को आत्महत्या के प्रयास का दोषी ठहराकर उसकी आवाज को दबा दिया जाता था.

इस बीच 1947 में आजादी के बाद भी धारा 309 और अन्य तमाम प्रावधान भारतीय कानून में बदस्तूर शामिल रहे. समय समय पर इन्हें हटाने की मांग उठती रही. सबसे पहले विधि आयोग ने 1961 में धारा 309 को हटाने की सिफारिश की थी. इसे जनता सरकार के कार्यकाल में 1977 में स्वीकार कर संसद में संशोधन विधेयक लाया गया. राज्यसभा से पारित होने के बाद लोकसभा से यह पारित हो पाता इससे पहले ही सरकार गिर गई और यह विधेयक भी ठंडे बस्ते में चला गया. उसके बाद भी विधि आयोग की रिपोर्टों में धारा 309 हटाने की सिफारिश की गई. अब जाकर मोदी सरकार ने व्यर्थ के कानूनी प्रावधानों को हटाने की पहल के तहत धारा 309 का भविष्य भी तय कर दिया है.

आपराधिक मामलों के वरिष्ठ वकील पवन शर्मा का मानना है धारा 309 की वैधानिकता शुरू से ही संदेह के घेरे में रही है. सामान्य सी बात है कि आत्महत्या का प्रयास उन्हीं हालात में किया जाता है जब किसी के लिए जिन्दगी नरक बन जाए. ऐेसे में हालात के मारे किसी व्यक्ति को खुदकुशी की कोशिश में नाकाम रहने पर जेल में डाल देना न तो न्यायोचित है और ना ही समझदारी भरा कदम.

जहां तक इसके नकारात्मक पहलू की बात है तो समाज में पारिवारिक हिंसा और कलह के चढ़ते ग्राफ की हकीकत को ध्यान में रखना होगा. इस स्थिति में खुदकुशी की कोशिश के मामले बढ़ने की हकीकत से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है. स्कूलों के बच्चे भी पारिवारिक दबाव का सामना न कर पाने पर आत्महत्या की कोशिश करते हैं. इन्हें रोकने के लिए स्कूलों और कॉलेजों के साथ पारिवारिक परामर्श केंद्रों का जाल बनाने की जरूरत है.

ब्लॉग: निर्मल यादव