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दिल्ली की जंग नहीं आसान

१९ मई २०१५

भारत में इन दिनों संवैधानिक अधिकारियों के अधिकारों को लेकर अजीब जंग छिड़ी हुई है. अक्‍सर जनता सरकार से अपने हक की लड़ाई लड़ती है लेकिन दिल्‍ली में सरकार को ही अपने हक-हुकूक के लिए लड़ना पड़ रहा है.

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तस्वीर: Reuters/India's Presidential Palace

भारत की राजनीति में पिछले तीन सालों से उथल पुथल मचा रही आम आदमी पार्टी की सरकार ने जनता से किए वादे पूरा करने से पहले दिल्‍ली सरकार को ही उसका हक दिलाने की ठान ली है. उसकी कोशिश है कि दिल्‍ली को पूर्ण राज्‍य का दर्जा संसद से नहीं मिलने पर कानून के मार्फत ही दिलाया जा सके. सत्‍ता में आने के बाद तीन महीने के कार्यकाल में मुख्‍यमंत्री अरविंद केजरीवाल की उपराज्‍यपाल नजीब जंग से सरकार के अधिकारक्षेत्र को लेकर अब तक सात बार ठन चुकी है. सरकारी आदेश और अनौपचारिक पत्रों के द्वारा चल रही यह तनातनी अब राजनिवास और दिल्‍ली सचिवालय की दीवारों को लांघ कर खुले मैदान में आ गई है.

मतलब और मकसद दोनों साफ

सियासत और सरकारी तंत्र की समझ रखने वाले हैरान हैं कि आखिर केजरीवाल की यह जंग खालिस सियासी है या नासमझी का नतीजा है. हालांकि केजरीवाल की सियासी समझ किसी भी नजर में संदिग्‍ध तो नहीं है. इसलिए यह कहना नादानी होगा कि वह केवल जनता से किए वादों से ध्‍यान हटाने के लिए ही यह सब कर रहे हैं. हालांकि विपक्षी दल भाजपा और कांग्रेस यही आरोप भी लगा रहे हैं.

Indien Arvind Kejriwal Narendra Modi Treffen
तस्वीर: picture-alliance/dpa

केजरीवाल बनाम नजीब जंग की इस नूराकुश्‍ती के हर दांव की हकीकत जिस तरह से जनता के बीच खुल कर सामने आ रही है उससे इसका मकसद और मतलब बिल्‍कुल साफ हो जाते हैं. केजरीवाल आधे अधूरे अधिकारों के मार्फत राज नहीं करेंगे. मकसद भी स्‍पष्‍ट है कि पिछली सरकारों की तरह वह दिल्‍ली को पूर्ण राज्‍य का दर्जा दिलाने के लिए संसद का रास्‍ता अपना कर समय नहीं गंवाएंगे. वह दिल्‍ली सरकार को अन्‍य राज्‍यों की तरह जरूरी प्रशासनिक अधिकार दिलाकर परोक्ष रूप से पूर्ण राज्‍य की कतार में लाना चाहते हैं.

निहितार्थ कुछ और भी

इसमें कोई शक नहीं है कि केजरीवाल की इस कवायद से दिल्‍ली की सियासत में जो हंगापा बरपा है उसके पीछे दीर्घकालिक सियासी लाभ भी छुपा है. लेकिन इसके साथ ही उन्‍होंने दिल्‍ली को पूर्ण राज्‍य का दर्जा दिलाने के लिए कानून को हथियार बनाकर वह रणनीति अपनायी है जिसके बार में अब तक के मुख्‍यमंत्री सोच भी नहीं पाए थे. सियासत और सरकार के रंगमंच पर चल रहे इस प्रहसन में केजरीवाल ने एक तीर से कई निशाने साध लिए हैं. उपराज्‍यपाल इस रंगमंच के सूत्रधार बनने के बजाय महज केन्‍द्र सरकार का डबल रोल निभाने के लिए मजबूर हो गए हैं.

दिल्‍ली विधानसभा के 1993 में पुनरुद्भव के बाद अब तक के सभी मुख्‍यमंत्री दिल्‍ली के पूर्ण राज्‍य न होने के कारण अपने अधिकारों की लड़ाई भी नहीं लड़ पाए. लेकिन केजरीवाल ने दिल्‍ली से जुड़े कानूनों की उन खिड़कियों की पहचान कर ली जो अब तक जाने अंजाने बंद पड़ी थीं. इस पूरे प्रकरण में अब तक उन्‍होंने जो भी पत्राचार किया है उसमें सं‍विधान के अनुच्‍छेद 239 एए, दिल्‍ली एक्‍ट की धारा 190 और दिल्‍ली सरकार के कामकाज से जुड़े नियम टीबीआर के प्रावधानों का हवाला देकर स्‍पष्‍ट किया है कि अन्‍य राज्‍यों की तरह दिल्‍ली में भी उपराज्‍यपाल को हर मामले में मुख्‍यमंत्री से परामर्श करना जरूरी है.

फिल्‍म अभी बाकी है

नजीब जंग ने अब तक एक भी पत्र में केजरीवाल की दलीलों का ना तो खंडन किया है और ना ही उन प्रावधानों का जिक्र किया है जो उनकी नजर में सरकार के कामकाज को असंवैधानिक और खुद उनके काम को संवैधानिक साबित कर सकें. सीएम बनाम एलजी की जंग अब रोचक पड़ाव पर आ गई है. केजरीवाल ने पर्याप्‍त कागजी सबूत जुटा कर राष्‍ट्रपति का दरवाजा खटखटाया है. कानूनन राष्‍ट्रपति ही दिल्‍ली के संवैधानिक मुखिया हैं. केजरीवाल उनसे दिल्‍ली में सरकार और राजनिवास के बीच अधिकारक्षेत्र का स्‍पष्‍ट सीमांकन करने की गुहार लगा रहे हैं.

अव्‍वल तो उन्‍हें अपने कानूनी हथियारों की धार पर पूरा भरोसा है. अगर यहां भी राहत नहीं मिली तो फिर वह अदालत की शरण में भी जाएंगे. कुल मिलाकर केजरीवाल ने दिल्‍ली सरकार को कानूनों की अस्‍पष्‍ट व्‍याख्‍या के कारण दिए गए दोयम दर्जे के तमगे को उतार फेंकने की ठान ली है. देखना होगा कि रंगमंच के मंझे खिलाड़ी रहे नजीब जंग का इस जंग का क्‍या हश्र होता है. खासकर तब जबकि इस नाटक के प्रायोजक की भूमिका निभा रही केन्‍द्र सरकार ने फिलहाल खुद को तटस्‍थ कर लिया है.

ब्लॉग: निर्मल यादव