1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

तालिबानी वार्ता से उकताए पाकिस्तानी

१९ अप्रैल २०१४

पाकिस्तान में पहले ही बहुत से लोगों को सरकार और तालिबान के बीच शांति वार्ता से ज्यादा उम्मीदें नहीं थीं. अब जबकि महीनों चली वार्ता वाकई बेनतीजा खत्म हो चुकी है तो उनकी निराशा का और बढ़ना लाजमी है.

https://p.dw.com/p/1BkpQ
तस्वीर: Aamir Qureshi/AFP/Getty Images

पाकिस्तान के तालिबानी शासन ने सरकार के साथ पिछले काफी समय से चल रहे संघर्ष विराम की अवधि बढ़ाने से इनकार कर दिया है. इस साल पहली मार्च से 10 अप्रैल के बीच करीब एक महीने तक चला यह संघर्ष विराम काल खत्म होने पर भी तालिबानों का दावा है कि वे बातचीत से पीछे नहीं हट रहे हैं. प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने जून 2013 में सत्ता में आते ही तालिबान के साथ बातचीत के जरिए स्थिति को बेहतर बनाने की कोशिशें शुरू की थीं. दोनों पक्षों के बीच शांति वार्ता का उपयुक्त माहौल बनाने के लिए ही सीजफायर शुरू हुआ था.

पिछले करीब एक दशक से पाकिस्तान में इन इस्लामी चरमपंथियों ने हिंसक विद्रोह जारी रखा हुआ है, तालिबान की सबसे अहम मांग यह रही है कि पाकिस्तान और अफगानिस्तान दोनों देशों में सख्त इस्लामी कानून शरिया लागू किया जाए. अफगानिस्तान में 1996 से 2001 तक तालिबानी शासन भी रह चुका है. तहरीके तालिबान पाकिस्तान (टीपीपी) ने युद्ध विराम को आगे ना बढ़ाने का कारण यह बताया कि इस्लामाबाद ने देश के संकटग्रस्त उत्तरपश्चिमी आदिवासी इलाकों में उनके खिलाफ सैनिक कार्यवाही बंद नहीं की थी. संघर्ष विराम के दौरान भी अफगानिस्तान की सीमा से लगे उत्तरी वजीरिस्तान के इलाके में कई बार दोनों ही पक्षों के बीच हिंसक मुठभेड़ों की खबर आती रही. पाकिस्तान के कराची शहर के 45 साल के व्यापारी ताहिर अहमद डीडब्ल्यू से बातचीत में कहते हैं, “सरकार और तालिबान के बीच लुकाछुपी का ये खेल अब बहुत चल चुका.”

Pakistanische Männer lesen Zeitschriften - Taliban Führer Hakimullah Mehsud bei Drohnenangriff getötet
तस्वीर: picture-alliance/dpa

इसी महीने दोनों पक्षों की बातचीत का कुछ असर दिखाई दिया जब नवाज शरीफ की सरकार ने देश की जेलों में बंद 19 तालिबानी कैदियों को दक्षिणी वजीरिस्तान में रिहा कर दिया. अमेरिका ने भी पाकिस्तान के आदिवासी इलाकों में ड्रोन हमलों पर पिछले साल दिसंबर से अस्थाई तौर पर रोक लगाई हुई है. कराची में रहने वाले पत्रकार और डॉक्यूमेंट्री फिल्ममेकर सबीन आगा ने डीडब्ल्यू को बताया कि तालिबान बहुत अच्छी तरह से सोची समझी योजना के तहत सरकार के साथ बातचीत में जुड़े हैं, “तालिबान धीरे धीरे समय और बल इकट्ठा कर रहे हैं. उन्होंने अपने कुछ साथियों को रिहा भी करवा लिया है. मुझे लगता है कि सरकार के पास इन शांति वार्ताओं के लिए कोई साफ नीति नहीं है और इसीलिए उन्हें ही नुकसान हो रहा है.“

कई राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि तालिबान और पाकिस्तान सरकार दोनों ही अफगानिस्तान में नाटों सेनाओं के भविष्य पर फैसला आने का इंतजार कर रहे हैं. इस साल के अंत तक अफगानिस्तान से अंतरराष्ट्रीय सेना को वापस बुला लेने की योजना है. अफगानिस्तान पर फैसला इस बात पर निर्भर कर सकता है कि इस साल वहां होने वाले आम चुनावों के बाद काबुल में स्थाई सरकार बनती है या नहीं.

पाकिस्तान के उदारवादी पक्ष की मांग है कि तालिबान के खिलाफ सीधे सीधे सैन्य कार्यवाही करनी चाहिए. वे नहीं चाहते कि इस्लामाबाद टीटीपी के साथ बातचीत करके स्थिति को सुधारने की कोशिश करे. दूसरी ओर, अमेरिका की टेक्सास यूनिवर्सिटी में दक्षिण एशिया मामलों के विशेषज्ञ स्नेहल सिंघवी बताते हैं कि सेना या पुलिस कार्यवाही से तालिबान को जड़ से उखाड़ा तो जा सकता है लेकिन ऐसा ना करने की एक वजह है. सिंघवी कहते हैं, “सब कुछ इस तरफ इशारा करता है कि वे (तालिबान) संख्या में बहुत ज्यादा नहीं हैं. लेकिन पाकिस्तानी सेना ने हमेशा से उन्हें अफगानिस्तान में अपने कूटनीतिक खेलों के लिए इस्तेमाल किया है और शायद आगे भी करना चाहेंगे.”

रिपोर्टः शामिल शम्स/आरआर

संपादनः आभा मोंढे