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चीन से आंख चुराता बॉलीवुड

५ अक्टूबर २०१२

चीन को लेकर भारतीय फिल्मों में लगातार तल्खी दिखी है. भारत हर साल दुनिया में सबसे ज्यादा फिल्म बनाने वाला देश है और बॉलीवुड की फिल्में पूरी दुनिया में देखी जाती हैं लेकिन जब बात चीन की आती है, तो मुश्किल रिश्ते दिखते हैं.

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तस्वीर: Getty Images

युद्ध हारने के दो साल बाद चेतन आनंद ने जब हकीकत फिल्म बनाई, तो उन्हें भारत सरकार का पूरा साथ मिला. देशभक्ति से ओत प्रोत इस फिल्म में दिखाया गया कि किस तरह भारत के जवान दुनिया के सबसे मुश्किल जंग के मैदान में हिम्मत के साथ अक्तूबर, 1962 में लड़े.

चेतन के भाई देवानंद ने 1970 में एक बार फिर इस युद्ध को प्रेम पुजारी में उठाया. लेकिन फिल्म का इस्तेमाल असली मुद्दे से भटक कर चीनियों में नुक्स निकालने के लिए किया गया. दिखाने की कोशिश हुई कि चीनियों को इंसानियत से कोई मतलब नहीं. वे उस कुत्ते को भी गोली मार सकते हैं, जो सीमा पार से उनकी तरफ घुस जाता है और जवाहरलाल नेहरू के हिन्दी चीनी भाई भाई के नारे का मजाक उड़ाते दिखते हैं.

Indischer Film Chandni Chowk to China
अक्षय कुमार की फिल्म चांदनी चौक टू चाइना काफी चर्चित रहीतस्वीर: Getty Images

अजीबोगरीब रवैया

ऐसा नहीं कि चीनियों को हिन्दी फिल्मों में हमेशा विलेन के रूप में ही दिखाया गया हो, लेकिन उनकी चर्चा जब भी हुई, उन्हें अजीबोगरीब तरह से पेश किया गया. 1958 में हेलेन ने हावड़ा ब्रिज फिल्म में एक चीनी युवती का वेष धर कर मेरा नाम चिन चिन चू गाना गाया. ऐसा गाना हिट हो गया, जिसका कोई मतलब ही नहीं निकलता था.

हकीकत से चलता हुआ बॉलीवुड 2009 में अक्षय कुमार की बदौलत चांदनी चौक से चाइना पहुंच गया. कट्टर दुश्मनी विकास के रथ पर मंद पड़ गई और रुपहले पर्दे पर भी थोड़ी थोड़ी दोस्ती नजर आने लगी. लेकिन चीन जिनता अनजान तब था, उतना ही अब भी बना रहा.

मुंबई का फिल्म उद्योग जैसे ही भारत से बाहर निकलता है, सीधे स्विटजरलैंड पहुंच जाता है. वादियों में नाच गाने से फुर्सत मिलती है तो लंदन और यूरोप के आलीशान घरों में घुस जाता है और महंगी गाड़ियों में घूम लेता है. लेकिन पड़ोसी देश चीन उसे नजर नहीं आता.

क्यों नहीं भाता चीन

चीन की चमक बॉलीवुड को लुभा पाने में क्यों नाकाम रही, दो उभरती ताकतों की आपसी होड़, 1962 की लड़ाई या फिर कुछ और? 1980 के दशक में चीन में लंबा वक्त गुजार चुके फिल्म समीक्षक अजय ब्रह्मात्मज बताते हैं कि हिंदी फिल्मों का चीन से रिश्ता तो पुराना है लेकिन यह परवान नहीं चढ़ सका. हिंदुस्तानी फिल्मकारों को चीन कई वजह से नहीं लुभाता. उनका मानना है कि फाहियान और ह्वेनसांग जैसे ऐतिहासिक चरित्रों पर फिल्म बनाना अच्छा हो सकता है, लेकिन "ऐतिहासिक फिल्में बनाना इतना खर्चीला है कि यह संभव नहीं हो पाता. हिंदी फिल्मों में जो मसालेदार कहानियों का दौर है उसमें ऐतिहासिक मुद्दों या चरित्रों पर फिल्म बनाने की हिम्मत जुटाना सबके बस की बात नहीं."

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पिछले तीन चार दशकों में 10 प्रतिशत के विकास रथ पर सवार चीन दुनिया का दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है. उसकी यह कामयाबी भी बॉलीवुड के लेंस को नहीं खींच पाता है. ब्रह्मात्मज बताते हैं कि फिल्मकारों की मानसिकता इसकी वजह है, "एक तो भाषा की बड़ी दिक्कत है, दूसरे मौसम की. इसके अलावा अगर फिल्मी दृश्यों की बात करें, तो भारतीय कलाकारों के आस पास चीनी चेहरे वाले लोग कई बार अटपटे लगते हैं या यूं कहें कि पश्चिमी देशों के चेहरों जितना आसानी से फिट नहीं होते."

चीन में बॉलीवुड

चीन के सिनेमाघरों में ज्यादा हिन्दी फिल्में नहीं दिखती हैं. चीन की सरकार हर साल केवल 20 विदेशी फिल्मों को ही सिनेमाघरों में दिखाने की मंजूरी देती है. यह भी बड़ी मुश्किल से हो पाया. पहले यह सीमा 10 फिल्मों की थी. इनमें से ज्यादातर हॉलीवुड फिल्में होती हैं, इसके बाद कोरियाई फिल्मों की बारी आती है क्योंकि सांस्कृतिक रूप से वह ज्यादा करीब है. पिछले साल बॉलीवुड की 3 ईडियट्स दिखाई गई, जो काफी पसंद की गई.

हालांकि विदेशी फिल्में तेजी से चीनी फिल्म बाजार पर पसरती जा रही हैं. 2011 में चीनी फिल्म बाजार ने 13 अरब डॉलर का कारोबार किया, जिसमें 45 फीसदी हिस्सा विदेशी फिल्मों ने जुटाया. सिर्फ 20 फिल्मों ने चीन की लगभग 600 फिल्मों के बराबर कारोबार किया. ये आर्थिक आंकड़े नीतियां बदलने की मजबूरी बन सकत हैं और तब फिल्म उद्योग को चीन के और पास आने का मौका मिल सकता है.

सरकारी पहल जरूरी

चीन ने ऐसा क्या किया है कि एक विकासशील देश से आनन फानन में साढ़े सात लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था बन गया है, यह जानने की दिलचस्पी पूरी दुनिया में है. पर चीन की बातें ज्यादा सार्वजनिक नहीं हो पातीं. राज कपूर की "आवारा" चीन पहुंचने वाली हिंदी की शुरुआती फिल्मों में है. आज भी लोग हर हिंदुस्तानी में रीता और राज ढूंढते हैं.

Aamir Khan Bollywood Akteur
आमिर खान की फिल्म 3 इडिड्स ने चीन में भी काफी नाम कमायातस्वीर: AP

राजकपूर की जीवनी लिखने वाले फिल्म समीक्षक जयप्रकाश चौकसे कहते हैं कि फिल्में समाज का आईना होती हैं और चीन के साथ रिश्ते बेहतर करने में भी अहम साबित हो सकती हैं. उनका कहना है, "इसके लिए सरकारी पहल की जरूरत पड़ेगी. वहां फिल्में भेजने की व्यवस्था करनी होगी. साथ ही उनकी फिल्मों के लिए भारतीय उद्योग को भी दरवाजे खोलने होंगे."

भारत ने पहले अंतरराष्ट्रीय फिल्मोत्सव में चीन की फिल्में दिखाईं. लेकिन बाद में यह सिलसिला टूटता गया. चौकसे कहते हैं कि भले ही दोनों देशों का सामाजिक ताना बाना अलग हो लेकिन दोनों प्राचीन सभ्यताएं रही हैं और यह जोड़ अहम रोल अदा कर सकता है. उनका कहना है इतिहास की मदद से भविष्य में बेहतर रिश्ते बन सकते हैं, "मिसाल के तौर पर गांधीजी. चीन के लोग उन्हें हीरो मानते हैं."

रिपोर्टः निखिल रंजन

संपादनः अनवर जे अशरफ

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