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अफगान मतदाताओं के साथ जालसाजी

२२ सितम्बर २०१४

अफगानिस्तान में राष्ट्रपति चुनावों के आधिकारिक नतीजों की घोषणा के पहले पद के दोनों उम्मीदवारों के बीच सहमति होना देश के लोकतंत्र के लिए खतरनाक हैं. यह कहना है कि अफगानिस्तान विशेषज्ञ फ्लोरियान वाइगंड का.

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तस्वीर: picture-alliance/AA

भले ही हम हर संभव स्थिति के बारे में विचार कर लें लेकिन फिर भी अफगानिस्तान हर बार अपने अजीबोगरीब फैसलों से दुनिया को अचंभे में डाल ही देता है. अगर गंभीरता से विचार करें तो कौन सोच सकता था कि दो चिर प्रतिद्ंवद्वियों के बीच छह महीने की चुनावी प्रक्रिया, जटिल ऑडिट, अंतहीन बातचीत और अंतरराष्ट्रीय नेताओं की औचक यात्राओं के बाद ऐसा कोई नतीजा सामने आएगा. अब दोनों ही विजेता हैं, ताकि कोई बुरा लग के पीछे हटने पर मजबूर न हो?

यह इतना अविश्वसनीय है कि अफगान भी हैरान हो कर आंखें मल रहे हैं. सोशल मीडिया में देश के नेताओं पर भड़का गुस्सा बहुत ज्यादा है. अधिकतर टिप्पणियां सख्त, गुस्से से भरी, हताशा से भरपूर और अंधेरे भविष्य का संकेत देने वाली हैं. कई लोग कुछ बोल ही नहीं रहे. निराशा का माहौल है. कुछ एक महीने पहले की स्थिति अलग थी. अप्रैल और जून में अफगान लोग जान के खतरे के बावजूद मतदान के लिए गए. उम्मीद से भरी तस्वीरें दुनिया भर में पहुंची कि अफगानिस्तान में लोकतंत्र संभव है. पहले दौर में अब्दुल्लाह अब्दुल्लाह आगे थे जबकि दूसरे दौर में अशरफ गनी.

लेकिन इससे सवाल उठे, चुनाव में धांधली के आरोप लगाए गए. मतों की फिर से गिनती की गई वह भी संयुक्त राष्ट्र कि निगरानी में. साथ ही दोनों उम्मीदवार राष्ट्रीय एकता की सरकार बनाने की कोशिश में लग गए. लंबी बातचीत के बाद समझौता इस रविवार को जा कर हुआ.

दोनों के साझा सरकार में जाने के बावजूद ऐसा लगता है कि बंद गली, जिसमें देश फंस गया था, उससे बाहर निकलने का यह एक रास्ता है. लेकिन अफगानिस्तान में लोकतंत्र के विकास के लिए यह रास्ता घातक है. मतदाताओं के दिमाग में ऐसा विचार आ सकता है कि उनके वोटों का कोई मतलब ही नहीं है क्योंकि नेता आपस में ही तय कर लेते हैं कि कौन देश कैसे चलाएगा.

सोचने वाली बात यह है कि इस समझौते पर सार्वजनिक तौर पर उस समय हस्ताक्षर किए गए जब चुनाव के आधिकारिक नतीजे सामने भी नहीं आए थे. समझौते के मुताबिक गनी राष्ट्रपति होंगे और अब्दुल्लाह प्रधानमंत्री. इस समझौते के कुछ घंटों बाद चुनाव आयोग की घोषणा में गनी को राष्ट्रपति घोषित किया गया. लेकिन चुनाव आयोग ने न तो वोटों की संख्या बताई और न ही असली विजेता का ऐलान किया. यह मतदाताओं को नजरअंदाज करने और लोकतंत्र में बिगाड़ है, वह भी अनुमति के साथ.

पश्चिमी देशों से आयातित लोकतंत्र के अफगान संस्करण के इस अनुभव के बाद कोई आश्चर्य नहीं कि हिंदुकुश में लोग शासन के दूसरे विकल्पों के बारे में सोचें. तालिबान फिर से जड़ें जमा रहा है और चुनावी प्रक्रिया के दौरान पैदा हुए नेतृत्व के खालीपन का इस्तेमाल कर रहा है. काबुल में नेताओं के प्रति हताशा फिर उनके लिए मौके पैदा कर रही है. पिछले महीनों के दौरान हुई खींचातानी में फिर एक बार सामने आया कि अब्दुल्लाह और गनी दोनों ही अपनी सत्ता के बारे में सोच रहे हैं. और इसी के साथ यह खतरा भी पैदा हो गया है कि कोई एक चरमपंथियों से सहयोग लेने की कोशिश कर सकता है.

हालांकि उम्मीद भी है. नई सरकार के साथ जरुरी कामों को पूरा किया जा सकेगा. जिसमें अमेरिका के साथ सुरक्षा समझौता शामिल है और इससे भी जरूरी हिंसा और युद्ध से पस्त देश के लिए राहत राशि की अनुमति देना. अशरफ गनी को इसकी खासी जरूरत होगी, खास तौर पर अगर वह वित्तीय क्षेत्र में सुधारों का कदम बढ़ाते हैं. लेकिन इसके लिए राष्ट्रीय एकता की सरकार के सभी धड़ों को एक तरफ आना होगा. चाहे वो पश्तूनी हों, ताजिकी, उज्बेकी, हजारा या उत्तर दक्षिण के नेता हों या फिर उदारवादी और रुढ़िवादी. अगर ऐसा हो जाता है तो यह निश्चित ही अफगानिस्तान के इतिहास में पहली बार होगा. हालांकि इसकी उम्मीद कम ही है.

समीक्षा: फ्लोरियान वाइगंड/एएम

संपादनः महेश झा