बर्लिन में रिलीज हुई नागेश कुकुनूर की धनक
१२ फ़रवरी २०१५बर्लिन फिल्म फेस्टिवल, बर्लिनाले की वेबसाइट पर जब धनक की टिकटें खरीदने के लिए खिड़की खुली, तो आधे घंटे के भीतर ही हाउसफुल हो गया. इससे यह बात तो साफ है कि नागेश के चाहने वाले सिर्फ देश ही नहीं, विदेश में भी बड़ी संख्या में मौजूद हैं. नेशनल अवॉर्ड जीत चुके नागेश कुकुनूर का फिल्म फेस्टिवल्स से पुराना नाता रहा है. पेश है बर्लिन में हुई उनके साथ बातचीत के कुछ अंश.
डॉयचे वेले: आपकी नई फिल्म किस थीम पर आधारित है?
नागेश कुकुनूर: धनक एक आठ साल के लड़के की कहानी है जो अपनी दस साल की बहन के साथ राजस्थान के एक गांव में रहता है. लड़का नेत्रहीन है और बहन बचपन से उसे यह कहती आई है कि जब वह नौ साल का हो जाएगा तब उसकी दृष्टि लौट आएगी. क्योंकि अब वह नौ साल का होने जा रहा है, इसलिए बहन परेशान होने लगती है और उसके साथ एक जादुई सफर पर निकल पड़ती है.
यह आइडिया आपको कहां से आया?
दरअसल मेरे एक दोस्त ने विज्ञापन के कुछ आइडिया दिए थे. उनमें से एक यह भी था. लेकिन वह केवल विज्ञापन था, फिल्म नहीं. फिर एक दिन मैंने राजस्थान में एक भाई बहन की जोड़ी देखी. बस वहीं से मेरे दिमाग में पूरी कहानी उभर आई. और एक दूसरे का हाथ थामे बच्चों की वही तस्वीर अब मेरी फिल्म का पोस्टर है. मैं अधिकतर एक तस्वीर से ही फिल्म लिखना शुरू करता हूं.
धनक के बाद आप किस प्रोजेक्ट पर काम करने वाले हैं?
अभी ठीक तरह से कह नहीं सकता. मैं एक समय पर कई कहानियां लिखता रहता हूं. लेकिन मैं लगातार एक जैसी दो फिल्में नहीं बनाता. तो अगली फिल्म कुछ अलग होगी. फिलहाल मेरे पास आठ से दस स्क्रिप्ट पड़ी हैं.
भारत में ऐसे बहुत लोग हैं जो फिल्में बनाना चाहते हैं, उनके पास आइडिया भी हैं और टैलेंट भी लेकिन पैसे की कमी है. उनके लिए आपकी क्या सलाह है?
मैंने जब अपनी पहली फिल्म हैदराबाद ब्लूज बनाई थी, तो मैं अमेरिका से अपनी नौकरी छोड़ कर आया था. मैंने फिल्म का बजट तैयार किया और अपनी सारी सेविंग फिल्म पर लगा दी. पैसा होना या ना होना सिर्फ एक बहाना है. अगर आप वाकई फिल्म बनाना चाहते हैं, तो आप कुछ भी करके उसे बनाएंगे और अगर नहीं बना रहे हैं, तो आप में वो जज्बा ही नहीं है.
इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर एक लड़का नौकरी करने अमेरिका चला जाता है. यहां तक तो यह किसी साधारण से लड़के की ही कहानी लगती है. लेकिन फिर अचानक से सब कुछ छोड़ कर वह फिल्म बनाने निकल पड़ता है. यह कैसे हुआ?
मैं एक साधारण लड़का ही हूं. हां, मैं लंबे वक्त से फिल्म बनाना चाहता था और मैं जो चाहता था मैंने वह कर दिखाया. बहुत से लोग कहते हैं कि वे नौकरी नहीं छोड़ सकते क्योंकि मां बाप के प्रति उनकी जिम्मेदारी है. ये सब सिर्फ बहाने हैं. मैं भी यही करता था लेकिन एक वक्त आया जब मैं अपने ही बहानों से ऊब गया था. तो मैंने खुद को कहा कि या तो फिल्म बनाओ या सपने देखना बंद करो.
आपकी फिल्में अक्सर अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल में दिखाई जाती हैं. इन्हें वहां तक पहुंचाने का आपका क्या फॉमूला है?
मुझे फिल्म फेस्टिवल बहुत अच्छे लगते हैं. यहां लोगों में अलग सी ही ऊर्जा होती है. आपको एक अलग दृष्टिकोण देखने को मिलता है. मुझे इस बात की तसल्ली होती है कि फिल्म इंडस्ट्री सिर्फ मुंबई तक ही सीमित नहीं है. लेकिन फिल्म को फेस्टिवल तक पहुंचाने का कोई एक फॉर्मूला नहीं है. हां, यह बहुत जरूरी है कि आप लोगों से मिलते रहें, अपनी मौजूदगी दर्ज कराएं. कई लोग नेटवर्क बनाने में अच्छे होते हैं, उन्हें इसका ज्यादा फायदा मिलता है. मैं ऐसा नहीं हूं. मैं बस अपनी फिल्म भेज देता हूं और किस्मत से वो चुन ली जाती हैं.
आप हॉल में लोगों के साथ बैठकर अपनी फिल्म धनक देखेंगे? क्या लोगों की प्रतिक्रिया आप पर असर डालती है?
मैं अपनी फिल्म कभी भी नहीं देखता. एक बार जब वह बन कर तैयार हो जाती है, तो मैं कभी उसकी तरफ दोबारा नहीं देखता. कोई भी इंसान कभी अपने काम से पूरी तरह संतुष्ट नहीं हो सकता. और मैं यह नहीं सोचना चाहता कि काश यह मैंने अलग तरह से किया होता क्योंकि मैं जानता हूं कि जिस वक्त मैंने कोई शॉट लिया था, उस वक्त वही बेहतरीन था.
इसीलिए आलोचकों से भी मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता और ना ही मैं अखबारों और मैगजीन में उनकी राय पड़ता हूं. मैं आलोचकों को दो ही विकल्प देता हूं: आपको मेरी फिल्म अच्छी लगी, थैंक यू; आपको मेरी फिल्म अच्छी नहीं लगी, सॉरी. आपको मेरी फिल्म पसंद है तो देखिए, नहीं पसंद तो मत देखिए, बस.
इंटरव्यू: ईशा भाटिया, बर्लिन