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विकासशील देशों के पास कोयले का विकल्प नहीं

२६ नवम्बर २०११

अफ्रीकी जंगल में कंक्रीट की इमारत शक्ल ले रही हैं. अरबों डॉलर की लागत से बन रहा अफ्रीका का सबसे बड़ा कोयले से चलने वाला बिजलीघर विकासशील देशों के कोयले से प्यार की निशानी है. लेकिन पर्यावरण का क्या होगा?

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तस्वीर: AP

चीन और भारत की तरह ही दक्षिण अफ्रीका में भी कोयला ऊर्जा की बढ़ती मांग को पूरा करने का आसान और सस्ता विकल्प है जो भारी मात्रा में मौजूद है. हालांकि इसी कोयले ने इन तीनों देशों को दुनिया में सबसे ज्यादा कार्बन डाइ ऑक्साइड उत्सर्जित करने वाले देशों की कतार में सबसे आगे ला खड़ा किया है. यह तीनों देश दुनिया के उन पांच देशों में शामिल हैं जहां सबसे ज्यादा कोयला का उत्पादन होता है. इस कोयले से दक्षिण अफ्रीका में 90 फीसदी, चीन में 70 फीसदी और भारत में 55 फीसदी बिजली पैदा होती है. तीनों देश मिल कर अरबों डॉलर की रकम कोयले से चलने वाले नए बिजलीघरों में लगा रहे हैं.

Radfahrer vor Kohlekraftwerk in China
तस्वीर: AP

दक्षिण अफ्रीका के ऊर्जा विश्लेषक कॉर्नेलिस वान डेर वाल कहते हैं, "इन दिनों कोयला एक तरह से किसी गाली जैसा बन गया जिसका कोई नाम नहीं लेना चाहता लेकिन देश को ऊर्जा की जरूरत है. हर कोई स्वच्छ ऊर्जा चाहता है लेकिन कोयला सस्ता है और मौजूदा परिस्थिति में देश की पहुंच में है." दक्षिण अफ्रीका की योजना अगले 20 सालो में ऊर्जा उत्पादन को दुगुना करने की है. फिर से इस्तेमाल किए जा सकने वाले ऊर्जा स्रोत और परमाणु बिजली की बहुत सी महत्वाकांक्षी परियोजनाओं के बाद भी यहां कोयले से पैदा होने वाली बिजली की मात्रा 65 फीसदी से कम नहीं होगी.

करीब 14.8 अरब अमेरिकी डॉलर की लागत से उत्तरी शहर लेफालेल में बन रहा मेडुपी बिजली स्टेशन दुनिया का चौथा सबसे बड़ा बिजली घर होगा जो अगले दो साल के भीतर बिजली पैदा करना शुरू कर देगा. इतना ही बड़ा कुसिले बिजली घर को बनाने का काम भी पहले ही शुरू हो चुका है.

मेडुपी को अफ्रीका का पहला 'सुपरक्रिटिकल' कोल संयंत्र कहा जा रहा है, जो ऊच्च तापमान का इस्तेमाल कर कम कोयले से ज्यादा बिजली पैदा करेगा. इसके साथ ही राख और कार्बन डाइ ऑक्साइड की मात्रा भी कम निकलेगी. चीन भी कार्बन को जमा कर उन्हें रखने की नई तकनीक के लिए दबाव बना रहा है जिसमें कार्बन डाइ ऑक्साइड को जमीन के भीतर दबा दिया जाएगा. हालांकि दक्षिण अफ्रीका और भारत के लिए यह अभी दूर की कौड़ी है. मंगोलिया में चीन की सरकारी कंपनी शेन्हुआ ग्रुप एक बिजली घर बना रही है जिसें तरल कार्बन डाइ ऑक्साइड को रेगिस्तान में जमीन के भीतर डाला जाएगा जहां इसे 1000 साल के लिए सुरक्षित रखा जा सकता है.

Energieversorgung
तस्वीर: AP

चीन ने भविष्य में अपनी बिजली उत्पादन के विस्तार और खर्च के बारे में नहीं बताया है लेकिन योजना है कि कोयले से पैदा होने वाली बिजली को 2015 तक 63 फीसदी के स्तर पर लाया जाए. उधर भारत दूसरी तरफ उम्मीद कर रहा है कि 2030 तक कोयले से पैदा होने वाली बिजली की मात्रा 65 फीसदी तक पहुंच जाएगी. कोयला मंत्रालय के मुताबिक 2007 से लेकर अब तक 55 कोयले से चलने वाले संयंत्र लगाए गए हैं और अगले दशक में 100 और संयंत्र लगाने की योजना है.

पर्यावरण के लिए काम करने वाले लोगों की शिकायत है कि फिर से इस्तेमाल होने वाले ऊर्जा स्रोतों के विकास के लिए यह देश कुछ नहीं कर रहे हैं खासतौर से दक्षिण अफ्रीका को निशाना बनाया जा रहा है जो डरबन में शुरू होने जा रहे संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण चर्चा की मेजबानी कर रहा है. यह चर्चा सोमवार से शुरू होगी. ग्रीनपीस अफ्रीका से जुड़े मेलिता स्टीले कहते हैं, "फिर से इस्तेमाल होने वाले ऊर्जा स्रोत कोयले को हर मामले में हरा देंगे और कोयले से चलने वाले बिजलीघर बनाना पर्यावरण को होने वाले नुकसान को देखते हुए बेतुका है. कोयले को जलाने का कोई भी तरीका पर्यावरण के लिहाज से अनुकूल नहीं है. कोयले को जलाना पृथ्वी पर सबसे विनाशकारी काम है." पर मुश्किल पैसे की है. भारत के सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट जुड़े उमाशंकर एस कहते हैं, "विकासशील अर्थव्यवस्था में कोयले से दूर जाने का कोई रास्ता नहीं."

रिपोर्टः एएफपी/एन रंजन

संपादनः ओ सिंह

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