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बदले मिजाज के साथ भारत की ओर देखता म्यांमार

११ अक्टूबर २०११

म्यांमार के नए राष्ट्रपति थिन शिन कथित लोकतंत्र की रोशनी में भारत के साथ रिश्तों को नया आयाम देने दिल्ली आ रहे हैं. दिल्ली आने से पहले माइत्सोन बांध पर काम बंद करने का एलान कर थाई शिन ने हलचल मचा दी है.

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तस्वीर: picture-alliance/dpa

भारत, स्थानीय लोग, पर्यावरणविदों और अमेरिका की खुशी के बदले म्यांमार ने चीन की नाराजगी खरीदी है. वह देश जो ऐसे दौर में भी उसका सबसे बड़ा साझीदार बना रहा, जब दुनिया के सारे देश उसकी आलोचना और उससे किनारा करने में लगे थे. माइत्सोन डैम पर काम बंद करने का एलान अचानक कर दिया गया और इसके पीछे म्यांमार की अपनी दलीलें हैं.

करीब 3.6 अरब डॉलर की लागत से यह बांध इरावडी नदी पर बनाया जाना था. 2006 में म्यांमार के सैन्य शासन जुंटा ने इसका प्रस्ताव रखा और 2009 इसके लिए चीन की सरकारी कंपनी चाइना पावर इन्वेस्टमेंट कॉर्प और म्यांमार की सैन्य समर्थित कंपनी एशिया वर्ल्ड के बीच समझौता हुआ. चीनी कंपनी ने इस पर बहुत तेजी से काम भी शुरू कर दिया हालांकि स्थानीय लोग और पर्यावरणवादियों के साथ ही भारत ने भी इस डैम के बनने पर गहरी चिंता जताई थी. पर्यावरणवादियों का कहना है कि इस डैम के बनने से कम से कम 10 हजार लोग विस्थापित होंगे और म्यांमार के प्राकृतिक संसाधनों के लिए बेहद जरूरी इरावडी नदी की पारिस्थितिकी को भी इससे काफी नुकसान पहुंचेगा. इसके अलावा सांस्कृतिक रूप से खास माना जाने वाला काचिन इलाका भी इस डैम की वजह से पानी में समा जाएगा.

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जुलाई में भारत पहुंचे म्यांमार के सैन्य अधिकारीतस्वीर: AP

इससे भी बड़ी बात यह थी कि डैम से पैदा होने वाली बिजली का 90 फीसदी हिस्सा चीन को मिलना था. ऐसे में म्यांमार के लिए इस डैम से खोने को ही ज्यादा था. इसके बावजूद बांध पर काम बंद करने का एलान करके म्यांमार की सरकार ने दिलेरी दिखाई है. थाईलैंड के बाद चीन म्यांमार का सबसे बड़ा कारोबारी साझीदार है और इस फैसले का राजनीतिक असर होगा, इससे किसी को इनकार नहीं है. चीन ने बीते सालों में अरबों डॉलर का निवेश कर म्यांमार की खानों से खनिज, जंगलों से लकड़ी निकालने और तेल गैस के पाइपलाइन बनाने में बड़ी भूमिका तय कर ली है. इसके साथ ही चीन की सरकार देश में काबिज सैनिक शासन जुंटा की कड़ी समर्थक रही है जिसकी दुनिया भर में आलोचना होती है.

फैसले से हतप्रभ चाइना पावर इन्वेस्टमेंट कॉर्प के अध्यक्ष लु चिझु ने चीन की सरकारी समाचार एजेंसी शिन्हुआ से बातचीत में कहा, "चीन ने सारे नियम कानूनों को माना है और अपने कर्तव्यों और शर्तों को पूरा किया है." उन्होंने कहा कि काम बंद करना एक विस्मयकारी कदम है और, "इससे कई सारे कानूनी मसले उठेंगे." लु ने इन कानूनी ममलों का तो ब्यौरा नहीं दिया पर इतना जरूर कहा कि इसमें पहले ही बहुत सारा निवेश किया जा चुका है और फिर बांम न बनने की सूरत में बहुत सारी देनदारियों के दावे सामने आएंगे. अभी यह साफ नहीं है कि म्यांमार का कानूनी तंत्र इन मामलों से कैसे निबटेगा.

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बांध पर बाधातस्वीर: AP

चीन का विदेश मंत्रालय पहले ही इस मामले में कूद चुका है और म्यांमार की सरकार से चीनी कंपनियों के हितों की रक्षा करने की मांग की है. चीन के लिए यह सिर्फ बिजली का मसला नहीं है. आसपास के देशों के अंदर अपनी पैठ बना कर वह दक्षिण एशिया में अपने हितों को सुरक्षित कर लेना चाहता है. इतना ही नहीं चीन हिंद महासागर में मौजूद अपने दक्षिण पश्चिमी राज्यों तक जमीन के रास्ते पहुंचने के लिए भी म्यांमार की धरती का इस्तेमाल करना चाहता है. ऐसे में वह इतनी आसानी से इस परियोजना को हाथ से जाने देगा इसकी कम ही उम्मीद है. दोनों देशों के बीच आपसी कारोबार पिछले साल बढ़ कर 4.4 अरब अमेरिकी डॉलर और म्यांमार में चीन का निवेश 12.3 अरब डॉलर तक पहुंच गया है. दोनों देशों के रिश्तों में ज्यादा ध्यान प्राकृतिक संसाधनों और ऊर्जा पर है. म्यांमार भी इस रिश्ते की अहमियत समझता है और म्यांमार के उप राष्ट्रपति तिन आंग माइंत ऊ इसी महीने चीन के दौरे पर जा रहे हैं ताकि वहां की सरकार के सामने अपना पक्ष रख सकें.

इस बीच जानकारों की ऐसी राय बन रही है कि थिन शिन का इस डैम को बनाने से रोकने का फैसला म्यांमार की नीतियों में एक बड़े बदलाव का संकेत है. पांच दशकों के सैन्य शासन जुंटा के साए में बनी पहली कथित रूप से लोकतांत्रिक सरकार दुनिया के मंच पर अपने एकांतवास से बाहर निकलना चाहती है. एक तरफ लोकतांत्रिक नेता आंग सान सू ची की रिहाई और उनके साथ बातचीत शुरु करना, पहले सरकारी दौरे पर राष्ट्रपति का भारत जाने की तैयारी में जुटना और इसी बीच मित्सोने डैम को बनाने का काम बंद कर देना. जानकार ही नहीं अमेरिका भी इसे बदलाव की ओर बड़ा कदम मान रहा है. वरिष्ठ अमेरिकी सीनेटर जॉन मैक्केन ने म्यांमार सरकार के इसकी तारीफ करते हुए इसे बड़ा 'लोकतांत्रिक कदम' करार दिया है. जॉन मैक्केन ने कहा, "मैं राष्ट्रपति थिन शिन और सरकार के दूसरे नेताओं की तारीफ करता हूं कि उन्होंने मित्सोन डैम जैसे प्रोजेक्ट को बंद करने का साहसिक कदम उठाया है. इन लोगों ने जनता की आवाज सुनी है और उनके हित के लिए सरकार की नीतियों में एक बड़ा बदलाव किया है. यह एक लोकतांत्रिक कदम है और मुझे उम्मीद है कि लोगों के शांतिपूर्ण इच्छाओं को पूरा कर दूसरे क्षेत्रों में भी सकारात्मक बदलाव किए जाएंगे."

नई सरकार अपना चेहरा लोकतांत्रिक बनाने के लिए कोशिश में जुट गई है. सू ची की रिहाई के साथ ही उनके पिता को राष्ट्रीय नेता के रूप में उनका सम्मान लौटा कर इसकी शुरुआत कर दी गई है. सू ची के पिता आंग सान की 1947 में उनके राजनीतिक विरोधियों ने गोली मार कर हत्या कर दी थी. थिन शिन के पूर्ववर्ती सैनिक शासक थान श्वे की आंग सान को लेकर दुर्भावना सार्वजनिक तौर पर सामने आती रही है. पर थिन शिन ने न सिर्फ सू ची से बातचीत शुरू की बल्कि आंग सान को भी देश के राष्ट्रीय नेता के रूप में वापस उनका स्थान देने की कवायद शुरू कर दी है. यंगून की सड़कों पर आंग सान और उनकी नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित बेटी के पोस्टर बेचते बच्चों को खूब देखा जा सकता है. आंग सान की हत्या वाले दिन को शहीद दिवस के रूप में मनाने की परंपरा बहुत पहले से रही है. 2005 में जब सैनिक शासक थान श्वे ने राजधानी को नायिप्यिताव में स्थापित कर दिया तब से यंगून के गवर्नर इस समारोह की अध्यक्षता करने लगे.

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प्राकृतिक संसाधनों पर चीन की नजरतस्वीर: AP

हालांकि सू ची के थिन शिन से बातचीत शुरू करने पर उनकी आलोचना भी हो रही है. सू ची के समर्थक मान रहे हैं कि सरकार की तरफ से पर्याप्त सुधारों का एलान हुए बगैर ही उनसे बातचीत के लिए रजामंद होकर सू ची ने अच्छा नहीं किया. म्यांमार के बारे में किताब लिखने वाले और यहां के माने हुए जानकार बर्टिल लिंटनर कहते हैं, "एक तरह से उन लोगों ने आंग सान और सू ची को अपने मतलब के लिए हाइजैक कर लिया है."

थिन शिन के भारत दौरे के कई मायने हैं. भारत म्यांमार में बनी चीजों के लिए सबसे बड़ा बाजार है. दोनों देशों के बीच सालाना कारोबार 2010 तक बढ़ कर करीब 78.6 करोड़ अमेरिकी डॉलर तक जा पहुंचा है. दोनों देशों के बीच गहरे सांस्कृतिक संबंध होने के साथ ही एक दूसरे के पड़ोसी होने का भी नाता है. कभी भारत का ही एक राज्य रहा बर्मा ब्रिटिश शासन से आजाद होने के दौरान भारत के सहयोग का कायल रहा. जब जब वहां लोकतांत्रिक सरकारें रहीं, दोनों देशों के बीच रिश्तों में मजबूती आई. बीच में सैन्य शासन के दौरान दोनों के मन में खटास जरूर रही लेकिन रिश्ते बने रहे. भारत की आलोचना अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस बात के लिए भी होती रही है कि वह अपने प्रभाव का इस्तेमाल म्यांमार में लोकतंत्र को मजबूत बनाने में नहीं कर रहा. अब एक बार फिर म्यांमार में चुनाव के बाद कथित रूप से लोकतांत्रिक सरकार है क्योंकि अंदरखाने सेना का प्रभाव देश पर कितना है यह सब जानते हैं. बहरहाल थिन शिन भारत आकर अपने लोकतांत्रिक इरादों के बारे में बताएंगे ही, दुनिया में सबसे तेज रफ्तार से बढ़ रही दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था से अपने रिश्ते मजबूत कर म्यांमार की अर्थव्यवस्था को भी उड़ने के लिए आसमान का सिरा थमा देंगे. एक दूसरे के साथ लगती लगभग 1600 किलोमीटर लंबी सीमा वाले इन दोनों देशों के लिए एक दूसरे का साथ पाने के लिए वजहों की कमी नहीं है.

रिपोर्टः एजेंसियां/एन रंजन

संपादनः वी कुमार

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