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भारत की हरित क्रांति का वो पहलू, जो हरा-भरा नहीं था

साहिबा खान
१९ फ़रवरी २०२४

भारत को खाद्य आत्मनिर्भरता दिलाने में हरित क्रांति एक सफल और जरूरी अध्याय माना जाता है. लेकिन क्या हरित क्रांति के केवल फायदे ही हुए? कई जानकार हरित क्रांति के कुछ बड़े दुष्परिणामों की ओर ध्यान दिलाते हैं.

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अमृतसर में धान की पौध रोपते किसान. भारत में धान खरीफ की प्रमुख फसलों में से एक है.
नए हाइब्रिड बीजों से ज्यादा पैदावार जरूर मिली, लेकिन इसकी एक बड़ी कीमत भी चुकानी पड़ी. सिंचाई की जरूरत बढ़ी. कई जगहों पर सिंचाई की जरूरत पूरी करने के लिए भूमिगत जल का दोहन बढ़ा. रासायनिक खादों का इस्तेमाल भी बढ़ता गया. तस्वीर: Raminder Pal Singh/AA/picture alliance

भारत को खाद्य आत्मनिर्भरता दिलाने में मशहूर कृषि वैज्ञानिक एम एस स्वामीनाथन का बड़ा योगदान माना जाता है. जिस वक्त भारत को खाद्यान्न में आत्मनिर्भरता की सख्त जरुरत थी, उस वक्त स्वामीनाथन की कोशिशों से हरित क्रांति आई और भारत अनाज की किल्लत खत्म कर पाया. लेकिन आज जब जानकार और वैज्ञानिक अलग-अलग देशों में चली हरित क्रांति की बात करते हैं, तब इस नजरिये पर भी बात होती है कि क्या वाकई हरित क्रांति एक सफल प्रयोग था?

क्या है हरित क्रांति

कहते हैं कि हरित क्रांति की पटकथा मात्र आधे घंटे में लिखी गई. देवेंद्र शर्मा कृषि विशेषज्ञ हैं. उन्होंने स्वामीनाथन के साथ अपने एक इंटरव्यू के हवाले से डीडब्ल्यू को बताया, "स्वामीनाथन को हरित क्रांति लाने की वजह मात्र आधे घंटे में मिली थी. एक बार जब वह तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के साथ दिल्ली के पूसा इंस्टिट्यूट जा रहे थे, तब इंदिरा ने उनसे कहा कि क्या आप कुछ सालों में मुझे एक करोड़ टन अतिरिक्त गेहूं दे सकते हैं? मुझे इन अमेरिकियों से छुटकारा चाहिए. तब स्वामीनाथन ने उनसे वादा किया था.”

हरित क्रांति एक कृषि सुधार था, जिसने 1950 के दशक के आखिरी सालों से 1960 के बीच फसलों के उत्पादन को व्यापक रूप से बढ़ा दिया. इसमें पैदावार बढ़ाने के लिए अच्छी गुणवत्ता वाले कच्चे माल के साथ उन्नत तकनीकों और प्रौद्योगिकियों का उपयोग शामिल है. इस तकनीक के आने से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी खेती में बड़ा बदलाव आया और भारत सहित कई विकासशील देश अकाल की स्थिति में जाने से बच गए.

स्वामीनाथन की कोशिशों से गेहूं की खेती समेत कई अन्य फसलों की पैदावार में बेतहाशा वृद्धि हुई और खाद्यान्न की कमी से जूझ रहा भारत भोजन के मामले में आत्मनिर्भर बना. यही कारण है कि स्वामीनाथन को ‘भारतीय हरित क्रांति के जनक' की उपाधि दी गई. पूर्व कृषि सचिव सिराज हुसैन बताते हैं, "उन दिनों कहावत थी कि भारत में खाना 'शिप टू माउथ' की तरह मिलता था. यानी जहाज से उतारते ही अनाज लोगों में बांटना पड़ता था. उस वक्त स्वामीनाथन ने लोगों का पेट भरने के लिए सरकार को हरित क्रांति का रास्ता दिखाया.”

रासायनिक खादों के अंधाधुंध इस्तेमाल के कारण कई इलाकों में मिट्टी की उर्वरा शक्ति पर काफी असर पड़ा है.
गहराते जलवायु संकट के बीच भारत में किसानों की चुनौतियां भी बढ़ रही हैं. मौसम में अप्रत्याशित बदलावों के कारण बेमौसम बरसात और सूखे की नियमितता बढ़ी है. तस्वीर: DW

हरित क्रांति के दो बड़े कारण

देवेंद्र शर्मा बताते हैं, "किसी भी राष्ट्र के लिए सबसे बड़ा अपमान है अपना खाना न उगा पाना और बाहर से आयात करना.” सिराज हुसैन भी कहते हैं, "कुछ समय बाद अमेरिकी राष्ट्रपति भी अनाज देने से कतरा रहे थे और फाइल पर हस्ताक्षर नहीं कर रहे थे. यह भी अपने आप में काफी अपमानजनक बात थी.”

1960 के दशक में विकास अधिकारियों और जनता के बीच इस बात पर आम सहमति थी कि अत्यधिक आबादी वाली पृथ्वी तबाही की ओर बढ़ रही है. 1968 में आई पॉल एर्लिच की बेस्टसेलर "द पॉपुलेशन बम" में भविष्यवाणी की गई कि 1970 के दशक में "लाखों लोगों" को भूखों मरने से कोई नहीं रोक सकता.

भारत इस आपदा के लिए वैश्विक पोस्टर चाइल्ड जैसा था. देश की जनसंख्या तेजी से बढ़ रही थी, सूखे के कारण कई ग्रामीण इलाकों की स्थिति खराब थी और अमेरिकी गेहूं का आयात काफी बढ़ रहा था. ऐसे में दूसरे देशों पर अनाज की निर्भरता खत्म करना और अकाल की स्थिति टालना, ये दोनों हरित क्रांति के सबसे बड़े कारण थे.

क्या ये दो कारण मिथक थे?

यह बात सही है कि स्वामीनाथन द्वारा लाई गई हरित क्रांति ने देश को अकाल की ओर बढ़ने से बचाया. लेकिन 2010 में आई किताब ‘द हंगरी वर्ल्ड' में दावा किया गया कि 70 के दशक के अंत तक भारत में भुखमरी आने की आशंकाएं मिथक थीं. साथ ही, हरित क्रांति के क्रम में लगाए गए गेहूं के हाइब्रिड बीजों के बहुत ज्यादा उपजाऊ होने की धारणा को भी मिथक बताया गया.

स्वीट ब्रायर कॉलेज में पर्यावरण विज्ञान के अनुसंधान प्रोफेसर ग्लेन डेविस स्टोन के अनुसार, बढ़ी हुई उपज की वजह गेहूं के हाइब्रिड बीज नहीं थी. इसका कारण रासायनिक खाद की ज्यादा खुराक थी. स्टोन का शोध बताता है कि अमेरिका से उर्वरकों के आयात और सब्सिडी पर भी भारत ने भारी खर्च उठाया.

कृषि विशेषज्ञ देवेंद्र शर्मा बताते हैं, "हम हरित क्रांति तो ले आए, मगर अब हम उसके ‘सेकंड जनरेशन एनवॉयरमेंट इम्पैक्ट' को भुगत रहे हैं." इसका मतलब है, खेती के तरीकों में पहले किए गए बदलावों के कुछ साल बाद के नतीजे. देवेंद्र रेखांकित करते हैं, "यह सही है कि भारत को ज्यादा अनाज की जरूरत थी. बड़ी मात्रा में फर्टिलाइजर भी आयात किया गया. लेकिन खेती के तरीकों को ज्यादा बेहतर बनाने और कम फर्टिलाइजर उपयोग करने की जगह हम हर साल और भी ज्यादा उर्वरक का आयात करने लगे. हमें इस आदत को खत्म करना चाहिए था.”

ट्रेंड इकॉनमी के 2022 के आंकड़ों के अनुसार, उर्वरक आयात करने के मामले में भारत दुनिया में दूसरे नंबर पर है. इस आयात का मूल्य 1,700 करोड़ डॉलर से ज्यादा है.

कई जानकार खेती के तौर-तरीकों में बदलाव की अहमियत पर जोर देते हैं.
कई जानकार जल संकट वाले इलाकों में पानी की बहुत खपत मांगने वाली व्यावसायिक फसलों की जगह स्थानीय आबोहवा और संसाधनों के अनुरूप फसलों के चुनाव पर जोर दिए जाने की भी जरूरत बताते हैं. तस्वीर: Manjunath Kiran/AFP/Getty Images

हरित क्रांति में क्या खामियां रहीं

वैसे तो इस क्रांति ने अनाज की उपलब्धता बढ़ाई, लेकिन कई जानकार इसकी कुछ बड़ी खामियों की ओर ध्यान दिलाते हैं:

सिर्फ गेहूं पर जोर

हरित क्रांति से गेहूं, चावल, ज्वार, बाजरा और मक्का सहित कई अनाजों को लाभ हुआ, लेकिन सबसे ज्यादा फायदा गेहूं को पहुंचा. इसके चलते किसान दलहन और तिलहन उगाने वाले खेतों में भी गेहूं उगाने लगे. उसमें उन्हें सरकार से ज्यादा पैसे मिल रहे थे. कपास, जूट, चाय और गन्ने जैसी प्रमुख व्यावसायिक फसलें हरित क्रांति से लगभग अछूती रहीं.

क्षेत्रीय असमानताएं

हरित क्रांति का असर अब तक कुल फसली क्षेत्र के केवल 40 प्रतिशत पर ही हुआ है. सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ा है पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु पर. वहीं असम, बिहार, पश्चिम बंगाल और उड़ीसा सहित पूर्वी क्षेत्र और पश्चिमी और दक्षिणी भारत के शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्र इसके असर से अछूते रह गए.

संक्षेप में, हरित क्रांति ने केवल उन्हीं क्षेत्रों को प्रभावित किया जो पहले से ही खेती के लिहाज से बेहतर स्थिति में थे. इस कारण पैदावार और कृषि तकनीक जैसे मामलों में क्षेत्रीय असमानताओं की समस्या और बढ़ गई.

बड़ी जोत वाले किसानों को फायदा

10 हेक्टेयर या उससे अधिक जमीन वाला बड़ा किसान ही हरित क्रांति से सबसे ज्यादा लाभान्वित हुआ क्योंकि उसके पास कृषि उपकरण, बेहतर बीज और उर्वरक खरीदने के लिए वित्तीय संसाधन थे. ऐसे किसान नियमित सिंचाई की भी व्यवस्था कर पाए. 1990-91 में भारत में लगभग 1,053 लाख जोतें थीं, जिनमें से केवल 1.6 प्रतिशत जमीन ही 10 हेक्टेयर से अधिक थी.

बेरोजगारी

बेरोजगारी अब भी एक बड़ा मुद्दा बना हुआ है. पंजाब को छोड़कर और कुछ हद तक हरियाणा में, हरित क्रांति के तहत कृषि मशीनीकरण ने ग्रामीण क्षेत्रों में खेतिहर मजदूरों के बीच बड़े पैमाने पर बेरोजगारी पैदा की है. सबसे ज्यादा मार गरीबों और भूमिहीनों पर पड़ी.

पर्यावरण पर असर

जर्नल ऑफ एथनिक फूड्स और साइंस डायरेक्ट नाम की विज्ञान उन्मुख ऑनलाइन पत्रिकाओं के अनुसार, ये बात सही है कि नए हाइब्रिड बीज ज्यादा पैदावार दे रहे थे. मगर इसकी एक बड़ी कीमत भी चुकानी पड़ी. पहले से अधिक सिंचाई की जरूरत पड़ी और फर्टिलाइजर का भयंकर इस्तेमाल होने लगा. इससे मिट्टी में घुलने वाले रसायनों की मात्रा बढ़ी और आज हरियाणा जैसी उपजाऊ जमीन वाली जगहों में भी मिट्टी की उर्वरता कम होती दिख रही है.

देवेंद्र शर्मा कहते हैं, "खेती के गलत तौर-तरीके दुनिया में एक तिहाई ग्रीनहाउस गैसों के जिम्मेदार हैं." क्या हरित क्रांति के कारण भारत में रासायनिक खादों का इस्तेमाल बढ़ा है, इसके जवाब में पूर्व कृषि सचिव हुसैन ने बताया, "भारत में यूरिया पर अत्यधिक सब्सिडी दी जाती रही और कुछ राज्यों में यूरिया का बहुत अधिक उपयोग हुआ है.”

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सघन किसानी से एग्रो-इकोलॉजी किसानी की ओर

देवेंद्र कहते हैं, "अब जबकि हमें इस इंटेंसिव फार्मिंग की जरूरत नहीं है, कोई भूखा नहीं मर रहा जैसा 70 के दशक में लोगों को लग रहा था, तो हम क्यों रसायन से खाना उगा रहे हैं." देवेंद्र का मानना है कि ‘एग्रो-इकोलॉजी फार्मिंग' नए भारत और बेहतर खेती का तरीका है, जो आजकल आंध्र प्रदेश में किसान अपना रहे हैं.

कृषि के इस तरीके में छोटी जोत वाले खेतों में जानवरों और पेड़ों के बीच एक संतुलन बनाकर खेती की जाती है, ताकि ईकोसिस्टम के किसी भी हितधारक को कोई नुकसान न पहुंचे. देवेंद्र के अनुसार, आंध्र प्रदेश में करीब 60 लाख किसान हैं और उनमें से करीब आठ लाख किसान इस तरीके की खेती से खुश हैं. सिराज हुसैन भी इस कृषि पद्घति पर कहते हैं, "हम अभी देख रहे हैं कि आंध्र प्रदेश में किसानों और लोगों को इस खेती से कितना फायदा पहुंच रहा है. अगर फायदा नजर आता है, तो हम इसे बाकी राज्यों में भी अपना सकते हैं."