चुनावी सीजन में तेज हो रहा किसान आंदोलन
८ जून २०१८मध्य प्रदेश के बालगुढ़ा गांव के छोटे किसान मनीष भानज ने अपनी टमाटर की 1000 पेटियां सड़कों पर फेंक दी. उनका कहना है कि 25 किलो की एक पेटी थोक बाजार में 60 रुपये में बिक रही है. फसलों के इतने कम दाम कभी नहीं मिले और अब किसानों को सड़कों पर उतरने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है. कई किसानों ने शहरों को सब्जियों और फलों की सप्लाई करनी बंद कर दी है.
उत्तर प्रदेश के मेरठ और आसपास के कस्बों में आलू का उत्पादन करने वाले किसानों ने कम कीमत मिलने पर अपना आलू सड़कों पर फेंक दिया. किसान कुलबीर यादव के मुताबिक उन्होंने इस साल 200 बोरे आलू का उत्पादन किया था. इसमें से 100 बोरे बाजार में बेच दिए और बाकी को कोल्ड स्टोरेज में देना पड़ा. बतौर कुलबीर, कम कीमत मिलने की वजह से उनके लिए अपना रोजमर्रा का खर्च निकालना भी मुश्किल हो गया है.
आंदोलन का राजनीतिक दबाव
अब तक शांत चल रहे आंदोलन को किसान संगठनों ने तेज करने की तैयारी कर ली है. केंद्र शासित और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पार्टी बीजेपी की 8 राज्यों में सरकारें हैं और यहां के हजारों किसानों ने पिछले शुक्रवार से 10 दिन का प्रदर्शन शुरू किया है. किसानों की मांग है कि उनके कर्ज माफ किए जाएं और तेल, अनाज और दूध के सही दाम उन्हें दिए जाएं.
राष्ट्रीय किसान महासंघ के वरिष्ठ सदस्य संदीप पाटिल का कहना है कि सरकार की गलत नीतियों का ही यह नतीजा है कि आज किसानों को जीवनयापन करना भी मुश्किल हो गया है. पिछले साल मंदसौर में मारे गए 6 किसानों के लिए हमारे मन में सम्मान है और अगर सरकार ने हमारी मांगें नहीं मानी तो कई शहरों को जाम कर दिया जाएगा.
आंदोलन या पब्लिसिटी स्टंट
दूसरी ओर, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार किसान आंदोलन को ज्यादा तवज्जो नहीं दे रही है. पिछले हफ्ते केंद्रीय कृषि मंत्री राधामोहन सिंह ने किसानों द्वारा सड़कों पर फसलों को फेंके जाने को पब्लिसिटी स्टंट करार दिया और कहा कि इन आंदोलनों को बड़े किसान संगठनों का समर्थन हासिल नहीं है.
वहीं, विपक्षी दल कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी ने पिछले दिनों मंदसौर में मारे गए किसानों के पीड़ित परिवार से मुलाकात कर मध्य प्रदेश में आगामी विधानसभा चुनाव के अभियान की शुरुआत की. किसानों को संबोधित करते हुए राहुल गांधी ने कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसानों के साथ धोखा किया है. वह यह वादा कर सत्ता में आए थे कि किसानों को उनके उत्पादन का उचित दाम मिलेगा, लेकिन उद्योगपति और अपने कारोबारी मित्रों को खुश रखना ही उनकी प्राथमिकता है.
किसान संगठनों की बड़ी भूमिका
दरअसल, 2014 में सत्ता हासिल करने से पहले नरेंद्र मोदी ने वादा किया था कि वह सरकार बनाने के बाद किसानों की आय दोगुनी कर देंगे. यही वजह है कि ग्रामीण इलाकों के किसानों में फसलों के गिरते हुए दामों को लेकर रोष बढ़ रहा है. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के डाटा के मुताबिक, 1995 से अब तक कर्ज में दबे करीब 3 लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं. विशेषज्ञों की मानें तो भारत की कृषि व्यवस्था का तब तक समाधान नहीं निकलेगा जब तक लंबी अवधि की नीति न बनाई जाए और देश के हर कोने के किसान को इसका फायदा मिले.
भारत की 130 करोड़ की आबादी का दो-तिहाई हिस्सा आज भी कृषि पर निर्भर करता है. हालांकि जीडीपी में इसका महज 17 फीसदी योगदान है. शहरों की तरफ तेजी से जा रही आबादी के बावजूद ग्रामीण इलाकों में आधी से अधिक आबादी रहती है जो आगामी चुनावों में तय करेगी कि सत्ता की चाबी किसे सौंपी जाए. किसान संगठनों का उग्र होता प्रदर्शन चुनावों की दिशा तय करने में बड़ी भूमिका निभाएगा.