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क्या हासिल रहा किसान क्रांति यात्रा का?

समीरात्मज मिश्र
४ अक्टूबर २०१८

सरकार से बातचीत और कुछ मांगों पर आश्वासन के बाद उत्तर प्रदेश के किसानों ने अपना आंदोलन वापस ले लिया है. लेकिन इस आंदोलन के चुनावी साल में क्या सबक हैं.

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Indien Bauern Protest in Neu-Delhi
तस्वीर: Reuters

हरिद्वार स्थित टिकैत घाट से 23 सितंबर को रवाना हुई किसान क्रांति यात्रा दस दिन तक शांतिपूर्वक अपना रास्ता तय करती रही लेकिन दिल्ली की सीमा में दाखिल होने से पहले जब जबरन उसे रोकने की कोशिश की गई तो आंदोलन पर हिंसक होने का दाग लग गया. हालांकि किसान सिर्फ अपनी मांगों को लेकर सरकार से बात करना और किसान घाट तक पहुंचकर यात्रा को खत्म करना चाह रहे थे लेकिन दिल्ली-यूपी सीमा पर गाजियाबाद में जब उन्हें आगे बढ़ने से रोक दिया गया तो किसानों का सब्र जवाब दे गया. सीमा में घुसने के लिए जोर-जबरदस्ती कर रहे किसानों पर जब पुलिस ने पानी की बौछार, लाठी चार्ज और रबड़ की गोलियों का सहारा लेना शुरू किया तो अपने बचाव में किसानों ने भी अपना अस्त्र यानी लाठी उठा लिया.

सैकड़ों किसान घायल हुए, खून बहा, कुछ पुलिसकर्मियों को भी चोटें आईं और आखिरकार तीन अक्टूबर को तड़के किसानों को किसान घाट पर जाने की अनुमति दे दी गई, उनकी मांगें फिर भी नहीं मानी गईं. विवश होकर यात्रा का आयोजन करने वाले भारतीय किसान यूनियन के नेता नरेश टिकैत ने कहा कि "किसान क्रांति यात्रा समाप्त हो गई है लेकिन किसानों का आंदोलन नहीं."

किसान अब अपने ट्रैक्टरों और बैलगाड़ियों के साथ वापस लौटने लगे हैं लेकिन उनके चेहरे के भाव और उनकी बातचीत का टोन बता रहा है कि इन दस दिनों में उन पर क्या बीती और इससे उन्हें हासिल क्या हुआ? किसान यात्रा में यूपी और उत्तराखंड के अलावा पंजाब, हरियाणा और कुछ अन्य राज्यों के किसान भी शामिल थे.

किसानों की मांगें

किसानों की दस सूत्री मांगें थीं जिनमें सबसे अहम गन्ना किसानों का भुगतान, स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट लागू करना, दस साल पुराने ट्रैक्टरों पर से एनजीटी की ओर से लगाए प्रतिबंध को हटाना, दुर्घटना के वक्त किसानों को मुआवाजा देना और कृषि कार्यों के लिए मुफ्त बिजली उपलब्ध कराना शामिल है. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह समेत कई मंत्रियों और नेताओं ने किसानों के साथ कई दौर की वार्ता की लेकिन सरकार ने किसानों की मांगें नहीं मानी.

पिछले करीब चार साल में ये छठा मौका था जब किसानों ने दिल्ली में अपनी दस्तक दी हो. ये अलग बात है कि इसके बावजूद उन्हें निराश ही लौटना पड़ रहा है. किसान क्रांति यात्रा कहने को तो गैर-राजनीतिक थी और राजनीतिक दलों ने सिर्फ दूर रहकर ही अपनी चिंताएं और एक तरह से अपना समर्थन किसानों के प्रति जताया लेकिन ऐसा माना जा रहा है कि यदि सरकार ने देर रात उन्हें दिल्ली के किसान घाट पर जाने की अनुमति न दी होती तो किसानों ने बॉर्डर पर ही डटे रहने का फैसला कर लिया था और तब इसमें विपक्षी दलों की सहानुभूति लेने से कोई रोक नहीं सकता था.

Indien Bauern Protest in Neu-Delhi
तस्वीर: Reuters

मायूस हैं आंदोलनकारी

किसान बहुत ही मायूसी और गुस्से में लौट रहे हैं. बागपत से आए और अपने दो बेटों के साथ आंदोलन में लगातार दस दिन से पैदल चल रहे किसान जियालाल का कहना था, "हम जितनी मांग लेकर आए थे, वो सब सरकार मान ही लेगी, ये तो हमने नहीं सोचा था. लेकिन इतना तो जरूर सोचा था कि सीधे-सादे गांव के लोग चुपचाप अपने नेता की समाधि पर जा रहे हैं तो कम से कम उन्हें लाठी-डंडे तो नहीं खाने पड़ेंगे. लेकिन सरकार तो खेती और गांव से ही नहीं बल्कि गांव वालों से भी नफरत करती है.”

किसान क्रांति यात्रा को यूं तो सभी विपक्षी दलों ने अपना समर्थन दिया लेकिन कांग्रेस पार्टी ने इस पूरे मामले में किसानों की सहानुभूति लेने की जमकर कोशिश की और जानकारों के मुताबिक काफी हद तक उसे इसका लाभ भी हो सकता है. पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी भी लगातार इस पर ट्वीट करते रहे. किसान नेता वीएम सिंह कहते हैं कि 2009 में चुनाव से पहले कांग्रेस पार्टी ने किसानों का कर्ज माफ करने का वादा किया था और उसे पूरा भी किया था तो जाहिर है वो इस उपलब्धि की याद बार-बार दिलाएगी.

लेकिन मुख्य रूप से जिस इलाके के किसानों की इस यात्रा में भागीदारी रही, वहां राष्ट्रीय लोकदल यानी चौधरी अजित सिंह की पार्टी का दबदबा है और अजित सिंह ने खुद आंदोलनरत किसानों के बीच पहुंचकर किसानों से अपनेपन का न सिर्फ अहसास कराया बल्कि किसानों ने भी उन्हें हाथों-हाथ लिया. अजित सिंह के बेटे जयंत चौधरी भी लगातार सोशल मीडिया पर किसानों के प्रति हमदर्दी जताते रहे.

किसान यूनियन का असर

भारतीय किसान यूनियन का प्रभाव अन्य जगहों की अपेक्षा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कहीं ज्यादा है और खासकर गन्ना किसानों के इलाकों में. यूनियन और किसानों का प्रभाव राजनीति में साफ दिखाई देता है. यहां किसान और उसमें भी जाट समुदाय के लोग राष्ट्रीय लोकदल के कट्टर समर्थक रहे हैं लेकिन 2013 में मुजफ्फरनगर में हुए दंगों के बाद जाट समुदाय बीजेपी की ओर चला गया जिसका असर 2014 के लोकसभा चुनाव में साफ देखने में आया. इस इलाके की करीब एक दर्जन लोकसभा सीटों में से सभी पर बीजेपी की जीत हुई.

जाटों का बीजेपी से ये जुड़ाव 2017 के विधान सभा चुनाव में भी बना रहा और यहां की ज्यादातर सीटों पर बीजेपी ने जीत हासिल की. लेकिन विधान सभा चुनाव से पहले किए गए कर्ज माफी और गन्ना किसानों के भुगतान के वादे पूरा न करने को लेकर किसानों की बीजेपी से नाराजगी सतह पर आ गई. जाट समुदाय समेत किसानों का एक बड़ा वर्ग फिर से आरएलडी के समर्थन में आ गया जिसका असर कैराना लोकसभा और नूरपुर विधान सभा सीटों पर सीधे तौर पर दिखा.

बीजेपी की मुश्किलें

वरिष्ठ पत्रकार रियाज हाशमी कहते हैं, "गठबंधन की आशंका, उपचुनाव में जाटों और मुसलमानों का फिर से एक साथ आ जाना और अब किसानों की नाराजगी बीजेपी के लिए कहीं से भी अच्छे संकेत नहीं हैं. लोकसभा और विधान सभा चुनाव में बीजेपी ने यहां से जोरदार जीत हासिल की थी जबकि ये ऐसा इलाका हैं जहां बीजेपी को कभी भी इतनी बड़ी राजनीतिक उपलब्धि हासिल नहीं हुई थी. चूंकि यहां का जनाधार उतना ठोस नहीं है, इसलिए खिसकने की आशंका भी उतनी ही प्रबल है.” यही नहीं, इस पूरे आंदोलन में भारतीय किसान यूनियन के करीबी समझे जाने वाले बीजेपी के जाट नेताओं की भी जिस तरह से अनदेखी की गई और कुछ अन्य नेताओं को बातचीत के लिए आगे किया गया, उससे बीजेपी के भीतर भी असंतोष साफ दिखाई दिया.

किसानों के साथ वार्ता को लेकर पूर्व मंत्री और सांसद संजीव बाल्यान जैसे नेताओं को सरकार ने किनारे रखा जबकि यूपी सरकार में मंत्री सुरेश राणा को आगे किया गया. गन्ना किसानों के भुगतान को लेकर सुरेश राणा शुरू से ही किसानों के निशाने पर हैं जबकि संजीव बाल्यान को किसानों और किसान नेताओं, खासकर टिकैत बंधुओं का करीबी माना जाता है. बीजेपी ने तात्कालिक रूप से किसानों के इस आंदोलन को विपक्षी दलों के हाथों में जाने से भले ही रोक लिया हो लेकिन चुनाव के वक्त भी वो ऐसा करने में कामयाब हो पाएगी, ये बहुत मुश्किल है.

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