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भारत में भूमि अधिग्रहण पर जर्मन अख़बार

२६ फ़रवरी २०१०

दक्षिण एशिया के बारे में जर्मन अख़बारों ने इस बार भारत में भूमि अधिग्रहण विधेयक के बारे में लिखा वहीं पाकिस्तान की स्थिति पर भी उसने टिप्पणी की और भारत और चीन में बढ़ते इलेक्ट्रॉनिक कचरे पर भी जर्मन अख़बारों ने लिखा.

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तस्वीर: Bilderbox

भारत में औपनिवेशक समय का एक क़ानून भारत सरकार के लिए वह रास्ता है जिसके ज़रिए सार्वजनिक या निजी परियोजनाएं के लिए भूस्वामियों की ज़मीन का राष्ट्रीयकरण हो सकता है. लेकिन 1894 के तथाकथित भूमि अधिग्रहण विधेयक (लैंड एक्विज़िशन ऐक्ट) के ख़िलाफ़ विरोध बढ रहा है. ज़्युरिख स्थित अख़बार नोये त्सुइरिशर त्साइटुंग इस प्रक्रिया पर सवाल उठाते हुए लिखता है-

"दुनिया के पश्चिमी लोकतंत्रों में अतिरिक्त ज़मीन पाने के लिए सीमाएं बहुत संकरी तय गयी हैं. इसके अलावा दूसरे देशों में क़ानून के मुताबिक अधिक मुआवज़ा दिया जाता है. लेकिन भारत में 1894 के क़ानून में ऐसा प्रावधान नहीं है. सरकार ख़ुद-- यानी कोई स्वतंत्र संस्था भी नहीं-- ज़मीन की क़ीमत तय करती है. ज़्यादातर मामलों में सरकार बहुत ही कम क़ीमत में दुबारा ज़मीन खरीद सकती है. और तो और, देश में भ्रष्टाचार की वजह से जो भी पैसा दिया जाता है, उस का एक बडा हिस्सा इस खेल में शामिल राजनितिज्ञों की जेब में चला जाता है. यानी पीडि़त लोग अपने लिए ज़्यादा कुछ बचा नहीं पाते. अंत में उन्हें इसकी वजह से शायद बडे़ शहरों में दिहाडी़ मजदूर के तौर पर अपना गुज़ारा करना पडता है".

चीन और भारत में इलेक्ट्रॉनिक कूडा़ बड़ी समस्या बनता जा रहा है. म्यूनिख के ज़्युइडडोएचे त्साईटुंग का कहना है कि पुराने मोबाईल फोन, कंप्यूटर, प्रिंटर या फ्रिज की संख्या आने वाले दस सालों में कई गुना बढ़ सकती है. इसके लिए भारत जैसे देश बिलकुल तैयार नहीं हैं. अखबार का कहना है-

"मज़दूरों की कोशिश कई बार यही रहती है कि वह कुछ कीमती चीज़ों को कूडे़ से अलग कर लें. इसलिए वह कई हिस्सों को जलाकर या उन्हें गलाकर, इलेक्ट्रॉनिक चीज़ों में इस्तेमाल हुए सोने या चांदी को पाना चाहते हैं. लेकिन ऐसा करने से रासायनिक गैसें भी पैदा होती हैं. छोटे कारखानों में, जिन पर किसी संस्था का नियंत्रण नहीं है, औद्योगिक देशों का इलेक्ट्रॉनिक कूड़ा भी पाया जा सकता है. उदाहरण के लिए, पुराने कंप्यूटरों को दान के तौर पर भारत जैसे देशों में भेजा जाता है, जहां बाद में उन्हें कूड़े की ढेरों पर फैंक दिया जाता है. संयुक्त राष्ट्र की पर्यवरण संस्था के मुताबिक इलेक्ट्रॉनिक रद्दी के लिए एक वैश्विक पुनर्संसाधन चक्र की ज़रूरत है, जिसमें छोटे कारखानों के लोगों को भी ठीक तरह से शामिल किया जाए".

पाकिस्तान का बंदरगाह शहर काराची पाकिस्तानी और अफ़ग़ान तालिबान लड़ाकों का सबसे महत्वपूर्ण अड्डा बन गया है. अब वहां तीन बडे़ तालिबान नेताओं को गिरफ़्तार किया गया है. साप्ताहिक पत्रिका फोकस कहती है.

"एक बार फिर उसी बात की पुष्टि हुई है जिसका विशेषज्ञों को लंबे समय से शक़ था. कराची तालिबान लडाकों के लिए लडाई से दूर छिपने का सबसे महत्वपूर्ण अड्डा बन गया है और साथ ही उनकी गुप्त राजधानी भी. पश्चिमी ख़ुफ़िया एजेंसियां और कई देशों की सेनाओं का कहना है कि अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान लडा़कों के उन नेताओं ने, जो मुल्ला उमर के साथ लड़ रहे हैं और जो पाकिस्तानी शहर क्वेटा से अपना संघर्ष चला रहे थे, अपने परिवारों को काराची भेज दिया. तालिबान के सर्वोच्च नेता कराची में सम्मेलन करते हैं क्योंकि वे कराची में हवाई हमलों का शिकार नहीं बन सकते."

श्रीलंका को लेकर जर्मनी का समाजवादी अख़बार नोएयस डोएचलांड लिखता है कि राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे पूर्व सेनाध्यक्ष और विपक्ष के वर्तामान नेता सरथ फ़ोंसेका के खिलाफ सैन्य अदालत में मुकदमा चलाना चाहते हैं. मानवाधिकारों के लिए लड़ रहे कार्यकर्ताओं का कहना है कि सरकार लोकप्रिय फ़ोंसेका की गिरफ्तारी के साथ यह स्पष्ट करना चहती है कि वह कोई विपक्ष नहीं चाहती. लेकिन इस बीच सरकार के इस कड़े रुख को लेकर देश में विरोध बढ़ रहा है. अख़बार का कहना है-

"राजधानी कोलंबो में बैठी सरकार को चाहे यह अच्छा लगे या बुरा, लोगों को ऐसा लग रहा है कि सरकार सरथ फ़ोंसेका से डर रही है. इसीलिए उसने फ़ोंसेका को संसद में विपक्ष में देखने के बदले गिरफ़्तार कर लिया. इस सब को देखते हुए अब देश के तमिल अल्पसंख्यकों का मानना है कि यदि सरकार अपने ही समुदाय के एक व्यक्ति से यह बर्ताव कर सकती है, तो वे उससे भला क्या उम्मीद रख सकते हैं. ऐसे में राजपक्षे अप्रत्यक्ष रूप से इसके लिए भी ज़िम्मेदार हैं कि कई तमिल अपना अलग देश बनाने का सपना फिर से देखने लगे हैं."

रिपोर्टः प्रिया एसेलबॉर्न

संपादनः राम यादव