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बिना पूछे इंसानों पर दवा टेस्टिंग

३१ जुलाई २०१२

इंसान से चूहों की तरह व्यवहार किया जा रहा है. उन पर दवाओं का परीक्षण किया जाता है जिसकी वजह से कई लोगों की जान भी जा चुकी है. झकझोर देने वाला किस्सा भारत का है.

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तस्वीर: Moritz Wussow/Fotolia

सामाजिक कार्यकर्ता के शोर गुल के बाद सुप्रीम कोर्ट ने भी सरकार की खिंचाई की है. दवा कंपनियों पर टिप्पणी करते हुए कोर्ट ने कहा कि वो इंसान को बलि का बकरा बना रही हैं. जज आरएम लोधा और एएस दवे का कहना है, "जिम्मेदारी का अहसास होना ही चाहिए. इंसान के शरीर पर चूहों की तरह प्रयोग किया जा रहा है. ये दुर्भाग्यपूर्ण है. लोग मर रहे हैं. सरकार को बताना चाहिए कि इस बारे में क्या कदम उठाए गए हैं."

स्वास्थ्य अधिकार मंच की ओर से कोर्ट में जनहित याचिका दायर की गई थी. संगठन का कहना है कि मध्य प्रदेश में ऐसे 200 मामले आए हैं जहां मरीजों पर बिना उनकी इजाजत के दवा परीक्षण किया गया. ये अनैतिक और गैरकानूनी है. डॉयचे वेले से बात करते हुए स्वास्थ्य अधिकार मंच के पुनीत सिंह ने कहा, "स्थितियां बद से बदतर होती जा रही हैं. 2004 से 2006 के बीच कई दवा कंपनियों ने लोगों पर परीक्षण किए और इस मामले में बनाए गए नियम कानूनों का उल्लंघन किया. अफसोस की बात तो ये है कि इस बारे में किसी को सजा तक नहीं हुई."

विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि भारत में 2006 से हर हफ्ते करीब 10 लोग दवा परीक्षण की वजह से मर रहे हैं. साल 2008 से 2011 के बीच 1971 लोग दवा परीक्षण की वजह से मारे गए.

साल 2012 की शुरुआत में ऐसे 12 डॉक्टरों का पर्दाफाश हुआ, जो गुपचुप तरीके से बच्चों पर दवा परीक्षण कर रहे थे. बाद में इन्हें 5000 रुपये से भी का आर्थिक दंड लगाकर छोड़ दिया गया.

सामाजिक कार्यकर्ताओं का मानना है कि भारत दवा परीक्षण का सबसे बड़ा केन्द्र बनता जा रहा है. कम लागत, लचर नियम कानून और सजा न हो पाने की वजह से दवा कंपनियां लोगों की जान से खिलवाड़ कर रही हैं. कई बार तो अस्पताल में भर्ती मरीज को भी परीक्षण के लिए दवाई खिला दी जाती है. मामले में कई जानी मानी दवा कंपनियों का नाम भी सामने आया है.

एक मामला हरियाणा का है. प्रभा देवी के बेटे मनीष के शरीर पर दवा परीक्षण की वजह से सफेद दाग बनने लगे, जो अभी तक ठीक नहीं हुए. मनीष की दवाई चल रही है. उनके पिता जगन दास का कहना है, "हमारे गांव में कुछ लोग आए और उन्होंने कहा कि नवजात बच्चों को कोई नया टीका लगाना है और ये मुफ्त है. अगर इसे पैसा देकर लगवाते तो 6000 रुपये लगते."

Symbolfoto Der Bundestag berät über ein neues Gesetz zur Klärung der Vaterschaft
तस्वीर: AP

इसी तरह की एक घटना आंध्र प्रदेश में भी सामने आई. गुंटूर जिले की 35 महिलाओं पर स्तन कैंसर की दवा के असर का परीक्षण किया गया. महिलाओं को इसके बदले में पैसा भी दिया गया. जब महिलाओं ने दर्द और बेहोशी की शिकायत की तो डॉक्टरों ने अचानक दवाई देना बंद कर दिया. डॉक्टर ललित कुमार का कहना है, "स्वास्थ्य अधिकारियों की लापरवाही से उन डॉक्टरों को अपने आप सुरक्षा मिल जाती है जो दवा कंपनियों के लिए काम करते हैं."

हालांकि दवा कंपनियों ने दावा किया है कि वो उन्हीं लोगों पर परीक्षण करती हैं, जो असाध्य बीमारी से ग्रस्त हैं. इस मामले में हो रही मौत के लिए उन्हें दोष नहीं देना चाहिए. एक बहुराष्ट्रीय दवा कंपनी से जुड़े अधिकारी ने नाम न बताने की शर्त पर कहा कि दवा परीक्षण के लिए भारत में भी वही नियम कानून हैं जो अमेरिका और दूसरे यूरोपीय देशों में हैं. हलांकि सामाजिक कार्यकर्ता इस तर्क से सहमत नहीं हैं. उनकी मांग है कि ऑल इंडिया ड्रग ऐक्शन नेटवर्क के सदस्यों को मिलाकर एक कमेटी बनाई जाए और इस कमेटी के जरिए दवा परीक्षण से हो रही मौत पर निगरानी रखी जाए.

यूरोप में तो अब जानवरों पर परीक्षण के खिलाफ भी बवाल हो रहा है और जर्मनी सहित कई देश धीरे धीरे जानवरों की जगह कंप्यूटर पर दवा टेस्ट करने लगे हैं.

रिपोर्टः मुरली कृष्णन/विश्वदीपक

संपादनः ए जमाल

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