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आधी अधूरी सिनेमा की सदी

१५ अप्रैल २०१३

भारतीय फिल्मों ने भले 100 साल का सफर तय कर लिया हो लेकिन ऐसा प्रदर्शन नहीं कर पाया है कि दर्शक खड़े होकर तालियां बजाएं. सपने और रोमांस में भटकता बॉलीवुड कभी हकीकत के पास भी पहुंचता है लेकिन फिर छिटक जाता है.

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अमीर खानदान का राहुल और निचले वर्ग की अंजलि. राहुल का जिद्दी पिता यश और अंजलि का प्यार. कभी खुशी तो कभी गम में डूबा तीन घंटे का ड्रामा. दीवाली मनाने राहुल का हेलिकॉप्टर से आना, तो प्यार को पाने के लिए मोटे मोटे आंसू बहाना. फिल्म की यह कहानी दर्शकों को सपनों की दुनिया में ले जाती है. पर्दे पर अमीर गरीब का भेद मिट जाता है. राहुल और अंजलि एक हो जाते हैं. प्यार के साथ परंपराओं और ईमानदारी की घुट्टी पिलाई जाती है और आखिर में आंख पोंछते दर्शक हॉल से बाहर निकलते हैं.

फिल्म सच्चाई की दुनिया से परे है लेकिन फिल्म समीक्षक शुभ्रा गुप्ता का मानना है कि फिर भी इसमें आधुनिक भारत दिखता है, "मुझे लगता है कि भारतीय सिनेमा इस देश का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक संवाद का जरिया है. हर कोई बॉलीवुड तक पहुंच सकता है, चाहे वह गांव में चंद रुपयों में पुराने पर्दे पर देखे या फिर पूरे ऐशो आराम के साथ बड़े शहरों में मल्टीप्लेक्स में. बॉलीवुड की अहमियत आज से पहले कभी इतनी नहीं थी."

Flash-Galerie Bollywood Regisseur Gautam Rajadhyaksha
कभी खुशी कभी गमतस्वीर: Rapid Eye Movies

कैसे हुई शुरुआत

ढुंडीराज फाल्के को दुनिया दादा साहेब फाल्के के नाम से जानती है. उन्होंने 21 अप्रैल, 1913 को भारत में पहली फिल्म पेश की, राजा हरिश्चंद्र. फिल्म उस वक्त की पश्चिमी फिल्मों से तकनीक के मामले में पीछे थीं और भारत में औरतों तक को फिल्मों में काम के लिए राजी नहीं किया जा सका. उनके लिए यह काम "शर्मनाक" था, लिहाजा मर्दों से औरतों के रोल करवाए गए. उस वक्त किसी ने नहीं सोचा था कि एक दिन भारतीय सिनेमा दुनिया का सबसे बड़ा फिल्म उद्योग बन जाएगा.

शुरुआत में रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों के छोटे छोटे अंशों पर फिल्में बनाने का दौर शुरू हुआ, जो धीरे धीरे दूसरे खानों में जाने लगा. मशहूर फिल्मकार जावेद अख्तर का मानना है कि लोक कला भी धीरे धीरे हिन्दी फिल्मों में रच बस गया, "भारत में तीन चार हजार साल से कहानी सुनाने के लिए संगीत का इस्तेमाल करने की परंपरा है. चाहे संस्कृत के नाटक हों या रामलीला, या कृष्णलीला या फिर नौटंकी या यात्रा. चाहे वह उर्दू पारसी थियेटर, जो बोलती फिल्मों से पहले था. उन सबमें गाने होते थे. हम गानों में गीत रखते हैं. यह हमारा रिवाज है."

सुनहरा दौर

आजादी के बाद 1950 के बाद का दौर भारतीय फिल्मों का सबसे कामयाब वक्त माना जाता है. बिमल रॉय, गुरुदत्त और राज कपूर ने इस दौरान शानदार काम किया. गांवों का भारत शहर की ओर मुखातिब हो रहा था और ताजा ताजा आजाद हुआ भारत दूसरी तरह की परेशानियों में जकड़ा था. इन फिल्मकारों ने इन संजीदा मुद्दों को पर्दे पर जिस खूबसूरती से उतारा, उसका कोई तोड़ नहीं था. राज कपूर ने सीधा निशाना समाज पर साधा. वह सिर्फ भारत ही नहीं, पूर्व सोवियत संघ और चीन में भी लोकप्रियता की बुलंदियों तक पहुंचे.

Amitabh Bachchan
अमिताभ पूरी दुनिया में मशहूर हुएतस्वीर: picture-alliance/Mary Evans Picture Library

इसके बाद भले ही भारतीय फिल्मों का सुनहरा दौर ढलान की ओर गया लेकिन एंग्री यंग मैन के रूप में भारतीय फिल्म को पहला स्टार मिला, जिसने देश की सरहदों को पार किया. यह न तो पुरानी फिल्मी नायकों की तरह रईसजादा होता था और न ही नाच गाने वाला चिकने चेहरे का नौजवान. यह गुस्से से भरा गबरू जवान होता था, जो समाज के अत्याचार और माफिया पर अपना घूंसां चलाता था. उसके लिए प्यार व्यार जैसी कोई चीज नहीं होती, बल्कि सत्ता और समाज से विद्रोह ही उसका मकसद होता था. अमिताभ दुनिया भर में जाने जाने लगे. यूरोपीय देश तुर्की हो या अफ्रीका का तंजानिया हो या फिर मोरक्को. एक्शन के बाद रोमांस का दौर लौटा लेकिन विद्रोह की शक्ल में. सलमान और आमिर खान जैसे नायकों ने अपने प्यार को पाने के लिए अपनी जान गंवाने की हद तक विद्रोह किया.

दो एक दशक पहले भारतीय फिल्म सच्चाई के पास आने लगी. मणिरत्नम ने बॉम्बे में हिन्दू मुस्लिम रिश्तों का तनाव दिखाया, तो दिल से में अलगाववादी विचारधारा को सामने लाया. फिल्में अलग थीं, पर हिट थीं. फिर तो लगान और डर्टी पिक्चर जैसे भी प्रयोग हुए और कामयाब रहे.

बॉलीवुड का अर्थशास्त्र

नाच गानों और किस्से कहानियों में उलझता सुलझता बॉलीवुड अपना रास्ता भले जैसे भी तय कर रहा हो, लगभग डेढ़ अरब दर्शकों ने उसे दुनिया की सबसे बड़ी इंडस्ट्री में बदल दिया है. ब्रसेल्स की यूरोपीय ऑडियो विजुअल ऑब्जर्वेटरी के रिसर्च के मुताबिक 2011 में 1274 फिल्में बनाई गईं, जो हॉलीवुड से कई गुना ज्यादा हैं. अनुमान है कि भारत में हर रोज करीब डेढ़ करोड़ लोग सिनेमा देखने जाते हैं. हालांकि इसका एक हिस्सा ही बॉलीवुड का है. फिर भी पश्चिम में इन्हीं बॉलीवुड फिल्मों से भारतीय सिनेमा की पहचान है.

Filmszene Sometimes Happy, Sometimes Sad
शाहरुख और काजोल की चर्चित जोड़ी

बदलता चेहरा

फिल्म समीक्षक गुप्ता का मानना है कि पिछले 10 साल में बॉलीवुड का चेहरा बदला है, "अब एक बॉलीवुड नहीं रहा. कई बॉलीवुड बन गए हैं. एक बॉलीवुड पारिवारिक ड्रामा दिखाता है, जिसमें आंसू होते हैं. लेकिन अब अलग तरह का बॉलीवुड बना है, जो पुरानी और नई कहानियों को मिलाता है और इसके अलावा तीसरे तरह का बॉलीवुड भी है, जिसका बहुत विद्रोही सोच है."

इस तीसरी तरह के बॉलीवुड में फिल्म निर्माता अनुराग कश्यप को भी गिना जाता है, जिन्होंने ब्लैक फ्राइडे और गैंग्स ऑफ वासेपुर जैसी फिल्में बनाई हैं. डॉयचे वेले से बातचीत में कश्यप ने कहा, "मुझे लगता है कि हिन्दी सिनेमा में अभी भी बहुत कुछ नहीं हुआ है, जो हो सकता है. मिसाल के तौर पर हम हमेशा लव स्टोरी बनाते हैं या मां बाप और परिवार की कहानी बताते हैं. या ज्यादा से ज्यादा हम लोग बदले की कहानी बनाते हैं. उससे अलग हमने कुछ किया नहीं है. अगर वास्तविक फिल्में बनाते हैं, तो उसमें इतना कला भर देते हैं कि वे बोरिंग हो जाती हैं. मुझे न तो बोरिंग होना है और न ही कोई काल्पनिक दुनिया तैयार करनी है."

रिपोर्टः प्रिया एसेलबॉर्न

संपादनः अनवर जे अशरफ

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