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स्वयं अपनी स्वतंत्रता का पहरेदार होना होगा

२६ अप्रैल २०१४

अशोक वाजपेयी हिन्दी के जाने-माने कवि-आलोचक हैं और लगभग पांच दशकों से संस्कृति के क्षेत्र में सक्रिय रहे हैं. इन दिनों वह अन्य अनेक प्रख्यात संस्कृतिकर्मियों के साथ मिलकर सांप्रदायिकता विरोधी अभियान चला रहे हैं.

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Ashok Vajpeyi
तस्वीर: DW/K.Kumar

भारत की नौकरशाही में उच्च पदों पर रहने और भारतीय प्रशासनिक सेवा से अवकाश प्राप्त करने के बाद अशोक वाजपेयी महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के पहले कुलपति बने. कुछ समय तक वे ललित कला अकादमी के अध्यक्ष भी रहे. इन दिनों वह अपनी ऊर्जा सांप्रदायिकता के विरोध और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लोगों को आगाह करने में लगा रहे हैं. प्रस्तुत है कुलदीप कुमार के साथ उनकी बातचीत के कुछ अंश:

आपकी छवि एक ऐसे साहित्यकार की है जो राजनीति और राजनीतिक विचारधारा को साहित्य से अलग रखना ही श्रेयस्कर मानता है. लेकिन हाल ही में आपकी जनसत्ता' में प्रकाशित कविताएं बेहतरीन राजनीतिक कविताओं में गिनी जा सकती हैं. आपने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाए जाने के अभियान के खिलाफ भी स्टैंड लिया है. इस परिवर्तन का कारण?

छवि जो भी हो, विचारों की राजनीति में मेरी दिलचस्पी और सक्रियता शुरू से रही है, अलबत्ता सत्ता की राजनीति से अलग रहा हूं. इस पर इसरार किया है कि साहित्य अपने आप में विचार और राजनीति है और उसे सजग रहना चाहिए. बहुलता और समावेश की जीवनदृष्टि रखने के कारण जब भी मुझे ऐसी राजनीति उभरती दिखी है जो इनके विरोध में है, मैंने कविता और आलोचना में उसका विरोध किया है. रामजन्मभूमि आंदोलन के उफान के समय मैंने 1990 में ‘विजेता' और ‘बर्बर' तथा ‘यही हमारा समय है' कविताएं लिखी थीं जिन्हें राजनीतिक कहा जा सकता है. 2002 में गुजरात नरसंहार के सिलसिले में मैंने लेखकों, कलाकारों आदि को एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय का कुलपति होते हुए भी एकजुट कर मोदी सरकार को भंग करने की मांग की थी, देश के कुलपतियों को प्रतिरोध में मुखर होने का आह्वान किया था. अब फिर ऐसी स्थिति और खतरे हैं कि चुपचाप देखना मुझे लेखकोचित नहीं लगा.

आपने अपने शुरुआती सालों में बहुत बढ़िया साहित्यिक आलोचना भी लिखी थी. फिलहाल' पुस्तक में संग्रहीत उन निबंधों की मुझे आज भी याद है. आपने आलोचना से हाथ क्यों खींच लिया? अक्सर देखा गया है कि कवि प्रोफेशनल आलोचकों से बेहतर आलोचक सिद्ध होते हैं. जैसे टी एस एलियट या फिर हमारी अपनी हिन्दी के मुक्तिबोध और विजयदेव नारायण साही...

इधर विधिवत आलोचना लिखना कम हो गया है. लेकिन मैंने ललित कला, संगीत आदि पर हिन्दी और अंग्रेजी में आलोचना लिखी है. ‘जनसत्ता' में 17 वर्षों से चल रहा मेरा साप्ताहिक स्तंभ ‘कभी कभार' आलोचना का ही मंच है, अलबत्ता वह साहित्य तक ही सीमित नहीं है. इस तरह की अखबारी आलोचना को व्यापक पाठकवर्ग मिला है, जिससे संतोष होता है. हिन्दी में अज्ञेय, मुक्तिबोध, साही से लेकर मलयज, दूधनाथ सिंह, नंदकिशोर आचार्य, रमेशचन्द्र शाह, विष्णु खरे आदि कवि-आलोचकों की बड़ी लंबी और यशस्वी परंपरा है, भले ही उसे अकादमिक जगत में उचित मान्यता नहीं मिली है.

आपने भोपाल में भारत भवन के निर्माण और फिर संचालन में लंबे समय तक केंद्रीय भूमिका निभाई. बाद में ललित कला अकादमी के अध्यक्ष भी रहे. क्या हमारी सरकारों के पास वाकई कोई सांस्कृतिक दृष्टि या नीति है? क्या ये अकादमियां सरकारी विभागों के तरह नहीं चल रहीं? हाल में संसदीय समिति ने भी इनके कामकाज पर काफी असंतोष व्यक्त किया है. आपकी राय में क्या किया जाना चाहिए?

ज्यादातर सरकारों के पास, जिनमें केंद्र सरकार शामिल है, कोई स्पष्ट संस्कृति-नीति नहीं रही है; अलबत्ता कुछ संस्थाएं, गतिविधियां आदि वे पोसती रही हैं. नीतिनिर्माण के कई प्रयत्नों में मैं शामिल भी रहा पर वे किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाए. राष्ट्रीय अकादमियां अब अप्रासंगिकता के कगार पर पहुंच चुकी हैं. उनमें जमकर बैठ गई नौकरशाही की, बिना जवाबदेही के स्वायत्तता के नाम पर उसका दुरुपयोग करते हुए, उन्हें लक्ष्यविरत, कामचोर और दृष्टिहीन बनाने में बड़ी भूमिका है. उनकी बड़ी विडम्बना है कि वे उत्कृष्टता और प्रतिनिधित्व के द्वंद्व में अक्सर प्रतिनिधित्व की ओर झुकती हैं और व्यापक रूप से मीडियाकारों की चरागाह बन गई हैं. उन्हें भंग कर देना चाहिए और उन्हें उत्कृष्टता को स्पष्ट रूप से समर्पित, स्वायत्त पर जवाबदेह, संस्थानों के रूप में पुनर्गठित करना चाहिए. उनमें प्रशासन को चुस्त और कम करने के लिए सिर्फ प्रोफेशनल्स को लेना चाहिए और बाबुओं-चपरासियों से मुक्त कर देना चाहिए.

लेखकों, खासकर हिन्दी लेखकों, के सामने आज किस किस्म की चुनौतियाँ हैं? साहित्यिक और गैर-साहित्यिक, दोनों तरह की.

सबसे बड़ी चुनौती तो है साहित्य को अनुभव-विचार-दृष्टि-हस्तक्षेप की बहुलता की एक विधा के रूप में बनाए रखने की ताकि वह भाषा की बढ़ती भ्रष्टता और अनाचार के बरक्स उसे सर्जनात्मक उपयोग की संभावना और क्षमता को सक्रिय रख सके. ऐसी निर्भीकता और प्रगल्भता की, कि साहित्य में नवाचार, सूक्ष्मता-जटिलता की जगह स्वतंत्रता-समता-न्याय का सत्याग्रह सशक्त हो. साहित्य आत्मप्रश्नांकन और समाज-समय-सत्ता के प्रश्नांकन से विरत न हो. गैर-साहित्यिक यह कि वह समय और समाज में अपनी जगह बढ़ाने की कोशिश तो करे पर कोई समझौता नहीं और न ही किसी से कोई रियायत चाहे.

रचनात्मक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर पिछले कई दशकों से लगातार हमले हो रहे हैं. क्या स्थिति के सुधरने की कोई उम्मीद है?

किसी भी लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता उसका पोषक अधिकार होती है. हमारे यहां इस स्वतंत्रता पर, खासकर रचनात्मक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर, हमलों की एक नई और दुर्भाग्यपूर्ण परिपाटी बन गई है और समाज, सरकारें, अदालतें तक हाथ पर हाथ धरे ऐसा होते देखती रही हैं. यह संकोच और संस्थागत निरुपायता और बढ़ने के इस समय सारे आसार मौजूद हैं. ऐसे अवसरों पर सृजन और बुद्धि के समुदाय एकत्र हों और उसके बचाव में सामने आते रहें, इसके अलावा कोई और विकल्प दिखाई नहीं देता. हमें स्वयं अपनी स्वतंत्रता का पहरेदार होना होगा.

इंटरव्यू: कुलदीप कुमार

संपादन: महेश झा