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सिनेमा को सूना कर गए हंगल

२६ अगस्त २०१२

सर से पांव तक बेबसी में डूबे शख्स की निश्छल मुस्कान और लरजती आवाज ने हिंदी फिल्मों को ऐसा बुजुर्ग दिया जो दर्शकों को अपनों से ज्यादा सगा लगता. पर अब सिर्फ यादें हैं. हिंदी सिनेमा के सबसे प्यारे बुजुर्ग नहीं रहे.

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तस्वीर: Strdel/AFP/Getty Images

शोले का गब्बर नहीं भूलता वह अब भी रात में बच्चों को सुलाने के काम में आता है, न जय वीरू की हिम्मत दिलों से दूर होती है और ना चक चक करती बसंती की बातें यहां तक कि सांबा और अंग्रेजों के जमाने का जेलर भी सबके कानों में गूंजता है. इन सबके बीच रहीम चाचा की बेबस उदासी अलग तरह से दिल में जगह बनाती है. एक दो नहीं 50 साल से ज्यादा लंबे दौर में अवतार किशन हंगल नाम बदल कर नायक नायिकाओं के माथे पर बाप, चाचा, बड़े भाई बन हाथ रखते रहे और हर बार कुछ और नए दर्शकों को बुजुर्गों से लगाव रखना सिखाते रहे.

कमजोर कद काठी वाला यह शख्स हमारे आसपास रहने वाले किसी बुजुर्ग जैसा था और उसने बड़ी सादगी से लोगों के दिल में अपनी जगह बनाई. रविवार सुबह जब उनके निधन की खबर आई तो बॉलीवुड के साथ ही आम लोगों को भी ऐसा ही लगा जैसे उनके गली मुहल्ले का कोई बुजुर्ग इस दुनिया से चला गया हो. 98 साल के एके हंगल ने मुंबई के सांताक्रूज में एक अस्पताल में आंखिरी सांस ली. इसी महीने 15 अगस्त को उनका जन्मदिन था और इसके एक दिन बाद ही उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया.

कश्मीरी पंडित के घर पेशावर में जन्मे हंगल ने दर्जी के रूप में काम शुरू किया लेकिन मन लगता था कम्युनिस्ट आंदोलन और थियेटर में. आंदोलन के लिए जेल की हवा भी खाई और कपड़ा सीते सीते थियेटर से जुड़े रहे. मुंबई आने के बाद भी लंबे समय तक वह बलराज साहनी और कैफी आजमी के साथ थियेटर में ही रहे और उनकी इच्छा तो फिल्मों में जाने की थी भी नहीं. 1967 में बासु भट्टाचार्य तीसरी कसम में राजकपूर का बड़ा भाई बना कर उन्हें पहली बार फिल्मी दुनिया में ले आए.

लेकिन फिल्म जब पर्दे पर उतरी तो उनके दृश्यों पर कैंची चल चुकी थी. खैर इसी साल दो और फिल्मों में उन्होंने काम किया शागिर्द और धरती कहे पुकार के. इसके साथ ही हिंदी फिल्मों को एक बुजुर्ग मिल गया जो कहीं भी किसी भी पृष्ठभूमि के परिवार में अपनी जगह बना लेता.

मास्टर, मुंशी और बूढ़े मजदूर के किरदारों में तो हंगल ऐसे जमते कि कभी लगता ही नहीं कि वो अभिनय कर रहे हों. जितनी ज्यादा बेबसी उतनी भावुकता. बेटी के बाप की मुश्किलों को भी उनकी कातर आंखों में खूब जगह मिलती. हालांकि एक बार उन्होंने इन सारी पहचानों को उतार फेंका और शौकीन के इंदर सेन बन बैठे. हमेशा आदर्शों और सिद्धांतों पर चलने वाले वाले शख्स को रईस बन रंगीनमिजाजी करते देखना लोगों को थोड़ा हैरान जरूर कर गया लेकिन पसंद भी खूब आया.

राजेश खन्ना की फिल्मों के साथ उनका रिश्ता थोड़ा ज्यादा करीबी था. बावर्ची, अवतार, आज का एमएलए रामअवतार, नौकरी, अमर दीप, बेवफाई जैसी दर्जनों फिल्मों ने दोनों ने साथ काम किया. आखिरी बार 1996 में दोनों सौतेला भाई में साथ नजर आए. इसके बाद राजेश खन्ना तो फिल्मों में दिखने बंद हो गए लेकिन एके हंगल का सफर जारी रहा. आखिरी बार वो 2005 में पहेली में नजर आए. इसके बाद टेलीविजन के लिए मधुबाला नाम के धारावाहिक में भी काम किया.

पर्दे पर नजर आती हंगल की बेबसी शायद उनकी असल जिंदगी की मुश्किलों से जुड़ी थी. लंबे दौर तक फिल्मों तक काम करने के बाद भी उनकी आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी और एक बार तो उनकी दवाइयों तक के लिए संकट पैदा हो गया. बाद में बॉलीवुड के कुछ बड़े नाम उनकी मदद के लिए आगे आए और तब उनकी जिंदगी का पहिया आगे सरका.

मुंबइया फिल्मों में हमेशा से चमक दमक और शोर शराबे का जलवा रहा है और शोरशराबे से भरी भीड़ की चुंधियाती रोशनी में सादादिली से हंगल ऐसा सन्नाटा छोड़ गए हैं जिसे भर पाने में इन आवाजों को लंबा वक्त लगेगा.

रिपोर्टः निखिल रंजन

संपादनः ए जमाल

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