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लैब में बनी योनि

१५ अप्रैल २०१४

लैब में गुर्दा और कलेजा बना लेने के बाद अब वैज्ञानिकों को योनि बनाने में भी सफलता मिली है. अमेरिका में चार महिलाओं को इसका फायदा मिला है.

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तस्वीर: Reuters

इन चारों महिलाओं को एमआरकेएच सिंड्रोम था. यह एक आनुवंशिक बीमारी है जो बहुत कम ही देखने को मिलती है. जन्म के दौरान ही योनि या गर्भाशय या फिर दोनों ही पूरी तरह से विकसित नहीं होते हैं. ऐसे में कई महिलाओं को मासिक धर्म नहीं हो पाता और कई अन्य मासिक धर्म होने के बाद भी मां नहीं बन पाती. डॉक्टर ऑपरेशन कर इलाज करने की कोशिश जरूर करते हैं ताकि गर्भधारण किया जा सके. लेकिन पहली बार वेक फॉरेस्ट इंस्टीट्यूट फॉर रीजनरेटिव मेडिसिन के डॉक्टर नई योनि बनाने में कामयाब हो पाए हैं.

नॉर्थ कैरोलाइना के इस इंस्टीट्यूट में जिस वक्त ऐसा किया गया, इन चारों की उम्र 13 से 18 साल के बीच थी. डॉक्टरों ने उन्हीं की कोशिकाएं ले कर लैब में योनि बनाई. फिर ऑपरेशन कर उन्हें शरीर में लगाया गया. ये ऑपरेशन 2005 से 2008 के बीच हुए. इसके बाद डॉक्टरों का काम इस बात पर नजर रखना था कि क्या योनी सामान्य रूप से काम कर पा रही हैं. अब डॉक्टरों ने इस बात की पुष्टि की है कि सालों पहले किया गया प्रयोग सफल रहा. लैब में बनी योनि और महिलाओं की कोशिकाओं में कोई फर्क नहीं देखा जा सकता. वक्त के साथ योनि का विकास सामान्य रूप से हो गया और उन्हें संभोग में भी कोई परेशानी नहीं हो रही है.

इनमें से दो महिलाओं के पास गर्भाशय था और योनि नहीं. इन दोनों को अब सामान्य रूप से मासिक धर्म हो रहा है. हालांकि अभी तक यह साफ नहीं है कि क्या वे मां बन पाएंगी. पर वेक इंस्टीट्यूट के निदेशक डॉक्टर एंटनी अटाला का कहना है कि मासिक धर्म का मतलब है कि उनके अंडाशय में कोई गड़बड़ी नहीं है, इसलिए उन्हें कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए.

अटाला ने बताया कि इस तरह के मामले उनके पास अधिकतर तभी आते हैं जब लड़कियां किशोरावस्था में पहुंचती हैं, "योनि के अभाव में उन्हें रक्त स्त्राव नहीं होता, गर्भाशय में एंडोमेट्रियम की लेयर टूटने से मासिक स्राव होता है. लेकिन इसके बाहर निकलने का रास्ता ही नहीं होता, तो वह जम जाता है. इसलिए पेट में दर्द होने लगता है." दर्द की शिकायत के साथ जब मरीज डॉक्टर के पास पहुंचते हैं, तब उन्हें पहली बार अपनी हालत का पता चलता है.

इस से पहले अटाला की टीम को पुरुषों में मूत्राशय और मूत्रमार्ग बनाने में भी सफलता मिल चुकी है. उस समय भी उन्होंने मरीजों की ही कोशिकाओं का इस्तेमाल किया था.

आईबी/एएम (रॉयटर्स)