मुजीब के हत्यारों की फांसी बरक़रार
१९ नवम्बर २००९जस्टिस तफ़ज़्ज़ुल इस्लाम की अध्यक्षता वाले पांच जजों के पैनल ने 29 दिन की सुनवाई के बाद गुरुवार को यह फ़ैसला सुनाया. एक वरिष्ठ सरकारी वकील यूसुफ़ हुमायूं ने कहा, "मुजीब के हत्यारों की फ़ांसी से देश को एक भारी बोझ से मुक्ति मिलेगी. हम लंबे समय से इस फ़ैसले का इंतज़ार कर रहे थे. आज यह हो गया. हमें उम्मीद है कि उन्हें जल्द ही फ़ांसी दी जाएगी."
15 अगस्त 1975 को हुई बग़ावत में मुजीब और उनके परिवार के बहुत से सदस्यों की हत्या कर दी गई थी. उनकी बेटी शेख हसीना इस वक़्त देश की प्रधानमंत्री है जो अपने पिता और परिवार के सदस्यों की हत्या के समय अपनी बहन शेख रेहाना के साथ भारत में थीं. शेख़ हसीना ने जब अपने पिता के हत्यारों की मौत की सज़ा को बरक़रार रखे जाने का फ़ैसला सुना तो वह रो पड़ीं. सत्ताधारी आवामी लीग पार्टी के उपनेता और प्रधानमंत्री के प्रवक्ता सैयद अशरफ़ुल इस्लाम ने कहा, "इस फ़ैसले से इंसाफ़ हुआ और इसने देश में क़ानून का राज स्थापित किया है. जब प्रधानमंत्री ने इसके बारे में सुना, तो वह रो पड़ीं और बेहद भावुक हो गईं."
मुजीब की हत्या के मामले में 1998 में ढाका की एक अदालत ने पंद्रह लोगों की मौत की सज़ा सुनाई जिनमें ज़्यादातर पूर्व सैन्य अधिकारी थे. लेकिन बाद में हाई कोर्ट ने इनमें से तीन लोगों को मौत की सज़ा से छूट दे दी. बाक़ी बचे 12 में से छह फ़रार हैं, एक की विदेश में मौत हो चुकी है जबकि पांच लोग जेल में बंद अपनी सज़ा का इंतज़ार कर रहे हैं.
वकीलों ने कहा कि गुरुवार के फ़ैसले के बाद सभी 12 दोषियों की मौत की सज़ा को बरक़रार रखा गया है. क़ानूनी जानकारों का कहना है कि मौत की सज़ा पाने वाले लोगों के पास अधिकार है कि वह सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले पर समीक्षा के लिए अदालत में अपील करें. मुजीब के हत्या के मामले में मुक़दमा तभी शुरू हुआ जब शेख हसीना 1996 में पहली बार प्रधानमंत्री बनीं. क़ानूनी पेचीदगियों की वजह से यह मुक़दमा बेहद सुस्त रफ़्तार से चल रहा था और 2001 में यह ठप्प ही पड़ गया जब हसीना की प्रतिद्वंद्वी बेगम ख़ालिदा ज़िया सत्ता में आईं. इस साल दोबारा सत्ता में लौटने के बाद हसीना ने इस मुक़दमे को अंजाम तक पहुंचाने का संकल्प लिया.
रिपोर्टः एजेंसियां/ए कुमार
संपादनः महेश झा