'मानसिकता कोई लाइट की स्विच नहीं'
७ मार्च २०१४"अखबार में रिपोर्ट लिखने से तो कुछ नहीं होगा," यह जवाब है महिला अधिकारों के लिए लड़ रहीं वकील फ्लाविया आग्नेस का. उनसे ये सवाल किया गया था कि भारत में महिलाओं को लेकर समाज की मानसिकता को कैसे बदला जा सकता है. आग्नेस और उनका संगठन मजलिस कई दशकों से बलात्कार पीड़ितों के लिए काम कर रहा है.
2013 में केवल नई दिल्ली में बलात्कार के 1,330 मामले दर्ज हुए. 2012 में यह संख्या 706 थी. 2012 में ही पूरे देश में बलात्कार के 24,000 से ज्यादा मामले आधिकारिक रूप से दर्ज किए गए. उसी साल 16 दिसंबर को 23 साल की निर्भया का छह लोगों ने दरिंदगी से बलात्कार किया. निर्भया के बलात्कार और उसके बाद 16 दिसंबर क्रांति के नाम से हुए विरोध प्रदर्शनों से पता चला कि भारतीय समाज को इस कांड ने झकझोर दिया. इसके तुरंत बाद बलात्कार से संबंधित कानून को बदला गया और पीड़ितों के प्रति बेहतर व्यवहार के बारे में बहस होने लगी.
कुछ नहीं बदला
लेकिन महिला मुद्दों पर लिख रहीं ऑनलाइन कार्यकर्ता रोहिणी लक्षणे का मानना है कि अब भी कुछ खास बदला नहीं, "मीडिया में खबरों की वजह से बहुत लोगों को महिलाओं की परेशानियों के बारे में पता तो चला है, लेकिन अगर रोज होने वाले यौन शोषण की बात करें, घर पर या सड़कों पर, तो मुझे नहीं लगता है कि कुछ बदला है." लक्षणे मानती हैं कि भारत में महिलाएं खुद को कैसे देखती हैं, यह उनके साथ हो रहे शोषण की बड़ी वजह है. ज्यादातर महिलाएं छेड़छाड़ या शोषण का शिकार होने के बावजूद इन मुद्दों पर बात नहीं करतीं. रिपोर्ट लिखवाने की बात तो दूर है, "घरेलू हिंसा के बारे में तो महिलाएं बोलती ही नहीं. उनको डर होता है कि परिवार टूट जाएगा, बच्चों पर बुरा असर होगा. कई महिलाएं, जिनकी अच्छी नौकरियां हैं, वह भी अपना मासिक वेतन पति के हवाले कर देती हैं. ऐसी महिलाओं को समझ में नहीं आता है कि वह जाएं कहां, अगर उनके पति उनका बलात्कार करते हैं या उन्हें पीटते हैं."
कानून में अंधेर है
कानूनी अधिकारियों का रवैया भी रूखा रहता है. वकील फ्लाविया आग्नेस कहती हैं, "अगर कोई पीड़ित पुलिस के पास रिपोर्ट लिखवाने जाती है तो उसे गंभीरता से नहीं लिया जाता. पहले पुलिस अपनी छानबीन करके जानने की कोशिश करती है कि क्या यह महिला सच कह रही है. फिर पीड़ित महिला से अजीब सवाल पूछे जाते हैं. महिला को डर लगता है कि उसका अपमान होगा और लोग अंगुली उठाएंगे."
लेकिन उम्मीद की किरण अभी बाकी है. आग्नेस कहती हैं कि माहौल बदल रहा है. अब महिला पीड़ितों के पास अदालत में विकल्प है कि वह सार्वजनिक कार्रवाई के बजाय बंद कमरे में अपने मामले की सुनवाई कराएं. आग्नेस का संगठन मजलिस पीड़ित महिलाओं को सहयोग देता है. अदालत में पेश हो रही महिलाओं के साथ संगठन के कार्यकर्ता होते हैं जो पूरी सुनवाई के दौरान पीड़ित का सहयोग करते हैं और उसका मनोबल बढ़ाते हैं. इस वक्त मजलिस की कोशिशों से केवल महाराष्ट्र के कुछ इलाकों में महिलाओं को यह सेवाएं दी जा रही हैं. महिला अधिकारों पर लिख रहीं रोहिणी लक्षणे कहती हैं कि कानून कड़ा होने से फायदा हुआ है. घरेलू हिंसा और इंटरनेट पर यौन शोषण करने वालों को सजा हो सकती है.
कैसे बदलें मानसिकता
बहस और कानून अपनी जगह पर सही हैं, लेकिन भारतीय समाज में आए दिन बलात्कार की भयावह घटनाएं होती हैं. इनसे समाज की मानसिकता भी जाहिर होती है और यह बात भी साफ हो जाती है कि मानसिकताओं को बदलने में बहुत वक्त लगेगा. इस साल जनवरी में पश्चिम बंगाल में एक महिला से दरिंदगी से बलात्कार किया गया. उस पर अपने समुदाय से बाहर के लड़के के साथ रिश्ता जोड़ने के आरोप लगे. गांव की पंचायत ने सजा के तौर पर उससे बलात्कार करने के आदेश दिया. गांव के बीचों बीच एक मंच बनाया गया और उसकी यातना को सैंकड़ों लोगों ने देखा.
तो फिर क्या भारत में महिला अधिकारों के लेकर मानसिकता बदल सकती है? वकील फ्लाविया आग्नेस कहती हैं, "मानसिका कोई लाइट की स्विच नहीं है, जिसे आप ऑन या ऑफ कर सकें."
रिपोर्टः मानसी गोपालकृष्णन
संपादनः ओंकार सिंह जनौटी