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महिला अधिकार पर खामोश देश

५ जुलाई २०१४

दिल्ली या बदायूं का रेप कांड होता है, तो महिला अधिकारों की खूब बातें होती हैं. फिर ये बातें ठंडी पड़ जाती हैं. आखिर भारत में महिला अधिकार को लेकर और संसद में उनकी मौजूदगी को लेकर सार्थक बहस क्यों नहीं होती.

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तस्वीर: DW/J. Sehgal

राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने पिछले दिनों जब सरकार की प्राथमिकताएं गिनाईं, तो उनमें संसद में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण देने की बात भी थी. जानकारों का कहना है कि इस बिल को पास करा कर महिला सशक्तिकरण के लिए बहुत कुछ किया जा सकता है. 2010 में इस बिल को राज्यसभा से पास करा दिया गया था लेकिन लोकसभा ने इसे पास नहीं किया.

भारत के संविधान में लैंगिक आधार पर समानता का अधिकार है और इसके अलावा भारत कई अंतरराष्ट्रीय संधियों का हिस्सा है, जिसमें महिलाओं को बराबरी देने की बात कही गई है. इनमें महिलाओं के खिलाफ किसी भी प्रकार की भेदभाव को दूर करने वाली 1993 की संधि भी शामिल है.

कागज पर इन दावों के बावजूद दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में संसद में 543 में से सिर्फ 61 महिलाएं हैं. करीब सवा अरब की आबादी में महिलाओं की संख्या जाहिरी तौर पर आधी है लेकिन राजनीतिक इदारों में उनका प्रतिनिधित्व बहुत कम है. हाल के चुनावों में भी 7527 पुरुषों ने उम्मीदवारी भरी, जबकि सिर्फ 632 महिलाओं ने.

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अलग अलग क्षेत्रों में महिलाएंतस्वीर: picture-alliance/AP

दिल्ली यूनिवर्सिटी की पूर्व प्रोफेसर और समाजशास्त्री डॉक्टर प्रतिभा पांडे का कहना है, "यह दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में बिलकुल आनुपातिक प्रतिनिधित्व नहीं है. अगर संसद में एक तिहाई हिस्सा औरतों के लिए आरक्षित हो, तो बलात्कार और महिला उत्पीड़न जैसे मामलों में नियंत्रण आसान हो सकेगा."

भारत की आबादी में हाल के दशकों में महिलाओं की संख्या घटी है. अभी भी लड़कों को तरजीह दी जाती है, लड़कियों को नहीं और 1996 की यूनिसेफ की एक रिपोर्ट कहती है कि भारत में पांच करोड़ बच्चियां लापता हैं.

जो बच्चियां इस मानसिकता को किसी तरह झेल जाती हैं, उनके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार होता है. भारत में पितृ सत्तात्मक व्यवस्था का यह हाल है कि देश में मर्दों के मुकाबले 3.7 करोड़ कम महिलाएं हैं. करीब 62.3 करोड़ पुरुष और 58.6 करोड़ महिलाएं. साक्षरता के विषय में भी पुरुष बहुत आगे हैं. पुरुषों में 76 फीसदी, महिलाओं में 54 फीसदी.

हाल के चुनाव प्रचार में बीजेपी सहित कई पार्टियों ने कहा था कि वह महिलाओं को ज्यादा अधिकार देंगी. लेकिन यह भी अजीब बात है कि उन्होंने ज्यादा महिलाओं को अपना उम्मीदवार नहीं बनाया. ब्रिटेन में यॉर्क यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर कैरोल स्पारी का कहना है कि दरअसल भारतीय पार्टियां चाहती ही नहीं हैं कि महिलाओं को ज्यादा सीटें मिलें और इसी वजह से वे ज्यादा औरतों को टिकट नहीं देतीं.

दिल्ली स्थित सेंटर फॉर सोशल रिसर्च के अमिताभ कुमार का कहना है कि भारत की आाजादी के छह दशक बाद भी महिलाओं के राजनीति में आने को लेकर अजीब सा माहौल रहता है, "यहां तक कि सक्षम महिलाएं भी राजनीति में जाने के लिए पर्याप्त पैसे नहीं जुटा पाती हैं, चाहे उन्होंने कितनी ही पेशेवर प्रगति क्यों न की हो."

आम तौर पर भारत में संसद के निचले सदन लोकसभा में महिलाओं की भागीदारी सिर्फ 11 फीसदी होती है. भारत के ही दूसरे पड़ोसियों की तुलना में यह बेहद कम है. जेनेवा की इंटर पार्लियामेंट्री यूनियन से मिले आंकड़ों के अनुसार पाकिस्तान के 323 सीटों में 67 (20.7%), बांग्लादेश के 347 सीटों में 67 (19.3%) और नेपाल के 575 में 172 (29.9%) महिलाएं हैं. भारत के ऊपरी सदन यानि राज्यसभा में भी स्थिति बहुत अलग नहीं है, जहां सिर्फ 27 महिलाएं हैं, यानि 11 फीसदी से कुछ ज्यादा.

जानकारों का कहना है कि महिलाओं को कुल मिला कर सभी क्षेत्रों में आगे आने की जरूरत है, जिसके बाद ही संसद में भी उन्हें ज्यादा प्रतिनिधित्व मिल पाएगा. पांडे का कहना है, "बड़ी संख्या में महिलाओं को सामने आना होगा, ताकि वे महिलाओं के मुद्दों को उभार सकें."

ऑक्सफैम इंटरनेशनल की एक रिपोर्ट के मुताबिक महिला प्रधानों वाली पंचायतों की प्रगति अच्छी हुई है. यहां पीने के पानी, टॉयलेट, गटर, स्कूल और राशन की दुकानों की बेहतर प्रगति हुई है.

हार्वर्ड बिजनेस स्कूल की प्रोफेसर लक्ष्मी अय्यर का कहना है कि ज्यादा महिलाओं को राजनीति में चुनने से शिक्षा और दूसरे क्षेत्रों में भी उनकी स्थिति बेहतर होगी. हालांकि एक तथ्य यह है कि भारत के नए मंत्रिमंडल में 25 फीसदी कैबिनेट मंत्री महिलाएं हैं और उम्मीद की जा रही है कि इस तरह के कदमों से लैंगिक असमानता को दूर किया जा सकेगा.

एजेए/एमजे (आईपीएस)