मकड़ी के जाल से प्लास्टिक सर्जरी
११ फ़रवरी २०११आम तौर पर मकड़ी के जालों को देख कर हमें खराब लगता है. जब हमारे घर में दीवारों पर जाले लग जाते हैं तो हम उन्हें हटा देते हैं और कमरे को साफ कर देते हैं. लेकिन जर्मनी में हनोवर के मेडिकल कॉलेज में खास तौर से मकड़ी के जाले लगाए जा रहे हैं. यहां तक कि पूरे पूरे कमरों को जालों से भरा जा रहा है ताकि इन्हें इंसानों के लिए इस्तेमाल किया जा सके. ये रेशे शरीर में तो डाले जाएंगे लेकिन इसके बाद भी आप स्पाइडर मैन की तरह दूर दूर तक छलांग नहीं लगा पाएंगे.
जालों की खेती
हनोवर के मेडिकल कॉलेज में क्रिस्टीना अल्मेलिंग मकड़ियों पर शोध कर रही हैं. उनका यह शोध इतना अनोखा है कि हमारी तरह और भी कई लोग इसे देखने के लिए यहां आते हैं. यहां मकड़ी के जाले इस तरह दिखते हैं मानो वहां किसी विशाल पेड़ की टहनियां लटक रही हों. क्रिस्टीना अल्मेलिंग बताती हैं, "इनका आकार काफी बड़ा होता है. यह मकड़ियां आपस में एक दूसरे के साथ घुल मिल कर रहती हैं और ये जितना चाहें इस कमरे में अपना जाल फैला सकती हैं. आप यहां इन कोनों में देख सकते हैं कि कुछ पुराने जालों पर नए जाले बने हुए हैं. इसका मतलब यह है कि नेफिला नाम की इन मकड़ियों को कम जगह में जाल बुनने से भी कोई दिक्कत नहीं है."
ये जाल आकार में विशाल हैं. हर जाल औसतन एक मीटर लम्बा है और हर जाल के बीच आपको एक मकड़ी बैठी दिखेगी जो आपकी हथेली जितनी बड़ी है. धारीदार काले पैरों वाली नेफिला मकड़ियां दक्षिण अमेरिकी प्रजाति की हैं. क्रिस्टीना अल्मेलिंग बताती हैं, "हम इन मकड़ियों को चोट नहीं पहुंचाते. हम सिर्फ सुइयों के सहारे उन्हें एक कम्प्रेस्सर से कुछ इस तरह जोड़ देते हैं कि उनके पैर कम्प्रेसर के चारों तरफ फैल जाएं और उनका पेट कम्प्रेसर से चिपका रहे. इस तरह से वे केवल अपने पैर ही हिला सकती हैं, शरीर नहीं."
मकड़ियों के पेट में ही वे ग्रंथियां होती हैं जो जाल बनाने के काम आती हैं. इन जालों को पास में रखी एक चरखी पर इकट्ठा किया जाता है, कुछ उसी तरह जैसे रुई से धागा बनाया जाता है. यह 30 सेंटीमीटर बड़ी चरखी बिजली से चलती है और 200 मीटर जाल इकट्ठा कर सकती है.
चोट का इलाज
ये धागे काफी मजबूत होते हैं इसीलिए अब इन्हें प्लास्टिक सर्जरी में भी काम में लाया जा रहा है. क्लिनिक फॉर प्लास्टिक सर्जरी के निदेशक प्रोफेसर पेटर फौग्ट इसके फायदों के बारे में बताते हैं, "ये रेशे बेहद मजबूत होते हैं और इनकी ऊपरी सतह बहुत चिकनी होती है. सबसे खास बात तो यह है कि ये प्राकृतिक रूप से बनते हैं. कृत्रिम रेशों को कई बार शरीर ठीक तरह से स्वीकार नहीं कर पाता और फिर उस से एलर्जिक रिएक्शन भी हो जाते हैं."
अमेरिका के मूल निवासी जिन्हें रेड इंडियन के नाम से भी जाना जाता है, बहुत साल पहले घाव भरने के लिए इन्हीं रेशों का इस्तेमाल करते थे. कुछ ही दिनों में चोट पूरी तरह ठीक हो जाती थी. प्रोफेसर फौग्ट भी रेशों का ऐसा ही प्रयोग चाहते हैं, लेकिन हाईटेक तरीके से, "एक ऐसा ढांचा लिया जाएगा जिसके अन्दर से सभी कोशिकाओं को निकाल लिया जाएगा. इस ढांचे में फिर हजारों रेशे भर दिए जाएंगे. टूटी हुई तंत्रिकाएं इन रेशों के आसपास बढ़ने लगेंगी और धीरे धीरे इनसे जुड़ कर पूरी तरह विकसित हो जाएंगी."
यह तकनीक खास तौर से मोटरसाइकिल रेसरों के लिए उपयोगी साबित होगी. रेस के दौरान ट्रैक पर गिरने से कंधे में चोट आती है. मांसपेशियों में यदि इन रेशों को भर दिया जाए, तो चोट जल्द ठीक हो सकती है. जानवरों पर इस तकनीक का प्रयोग पहले ही किया जा चुका है और सकारात्मक परिणाम भी देखे गए हैं. अब इंसानों को स्पाइडर मैन बनते देखना बाकी है.
रिपोर्ट: ईशा भाटिया
संपादन: ए जमाल