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भाषाओं को मत लड़ाओ

२६ मार्च २०१३

आज के दौर की सल्तनतें अपने लिए सिर्फ ख्वाब ही नहीं बुनतीं वे एक जाल भी बुनती हैं, जिसे अपनी सुविधा या चालाकी या खामख्याली में वे कवच कह लेती हैं. भारत के संदर्भ में अंग्रेजी को ऐसा ही कवच बनाने की फिराक रही है.

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तस्वीर: Fotolia

कवच धारण कराना ही बाकी था कि मंसूबा फिलहाल पूरा नहीं हो पाया. जब संघ लोक सेवा आयोग, यूपीएससी ने सिविल सेवा इम्तिहान में अंग्रेजी के पेपर की अनिवार्यता कर दी और हिंदी समेत भारतीय भाषाओं के प्रश्नपत्र हटा देने चाहे तो अभूतपूर्व विरोध उठा. कभी हिंदी के विरोध में आजादी के कुछ ही साल बाद दक्षिण में आंदोलन उठा था, जिसकी तपिश और हिंसा आज भी सबके जेहन में है.

इस बार ये आंदोलन इस लिहाज से अलग था कि अंग्रेजी के विरोध में उठा और इसमें उत्तर, दक्खन, पूरब, पच्छिम सब कोनों से नेता और संगठन और राजनीतिक दल एक साथ आ गए. सरकार और उसकी एजेंसी यूपीएससी को इरादा रोकना पड़ा. अपनी अपनी भाषाओं की तरक्की के रास्ते में इस निर्णायक गतिरोध के खिलाफ पूरे देश में अपने आप प्रतिरोध का आना सुखद है.

आखिर ऐसी कौन सी मजबूरी थी कि यूपीएससी को अचानक ही अंग्रेजी पर्चे को पास करने और फिर उसके नंबर आखिरी मेरिट में जोड़ने की अनिवार्यता करने का सपना आ गया. असल में भारतीय सरकार और नौकरशाही के स्तर पर ये अंग्रेजियत का प्रेत है, जो इन लोगों को सताता रहता है. ये एक तरह की हीनग्रंथि भी है और श्रेष्ठता ग्रंथि भी. इस अधिकारी और मालिक तबके का मानना है कि अंग्रेजी लाने से ज्यादा काबिल, ज्यादा प्रोफेश्नल, ज्यादा कम्यूनिकेशन फ्रेंडली और ज्यादा तेजतर्रार स्मार्ट और मुखर अधिकारी आ पाएंगे. यानी ये तबका मानता है कि हिंदी समेत अन्य भारतीय भाषाओं में लिखने पढ़ने और सीखने वाले छात्र अभ्यर्थी दब्बू हैं, उन्हें समाज से घुलना मिलना नहीं आता, वे अपनी बात को ठीक से नहीं रख पाते और अंग्रेजी में बात नहीं कर पाएंगे तो वे आखिर किस काम के.

लब्बोलुआब यही कि अंग्रेजी जानेंगे तो पिछड़े हुए नहीं दिखेंगे, और अंग्रेजी बोलेंगे तो खूब जमेंगे. एक लिहाज से देखें तो ये सूटबूट की मानसिकता है. उपनिवेश काल की बू आती है इसमें. आखिर कोई पूछे कि भाई ये अफसर किसके लिए बनेंगे, आईएएस अधिकारी का काम क्या है. अपनी जनता की सेवा करना, उसके सुख दुख विपदा को समझना. तो इसके लिए अंग्रेजी की बाध्यता कहां से आ जाती है. क्या वे अंग्रेजी में ज्ञान देंगे या जनता की मुश्किलों का हल देंगे. और इस बहुसंस्कृति, बहुजातीयता, और बहुभाषीयता वाले देश में अंग्रेजी का पत्थर क्यों ढोने के लिए विवश किया जा रहा है उन लोगों को जो अपने अपने समाजों की जातीय और सांस्कृतिक संवेदना और पर्यावरण लेकर आते हैं और अपना मुकाम बनाने की जद्दोजहद में लगे रहते हैं, उसमें सफल भी रहते हैं और नाकाम भी, लेकिन डटे रहते हैं.

उन्हें अंग्रेजी का खौफ नहीं. लेकिन अंग्रेजी की अनिवार्यता उन्हें एक दूसरी तरह के खौफ के पास ले जाती है जो ठीक वैसा ही है, जैसा ब्रिटिश राज और उसकी गुलामी के दौर में था. डरो और डरो. इस तरह से तो देखा जाए तो आप अंग्रेजी जैसी भाषा के साथ भी अन्याय कर रहे हैं. उसके प्रति लोगों में अविश्वास और संदेह और डर पैदा कर रहे हैं.

जबकि भाषाएं तो ये क्रूरता नहीं करतीं. वे एक दूसरे के पास लाती हैं. दुनिया में प्रेम और भाईचारा और शांति और करुणा के लिए पुल तैयार करती हैं, वे इंसानियत के लिए और सौहार्द के लिए और परस्पर विश्वास के लिए गड्ढे नहीं खोदतीं. फिर भाषाओं को आपस में भिड़ाने की क्या ये कुटिलता है. क्यों. इससे क्या हासिल है. बहुत साल पहले हिंदी कवि रघुबीर सहाय ने अंग्रेजी के उत्पात और सरकारी अफसरान के “इरादों” की एक तीखी सूचना अपनी एक छोटी सी कविता में दी थी.

अंग्रेजों ने

अंग्रेजी पढ़ा कर

प्रजा बनाई

अंग्रेजी पढ़ा कर
अब हम
प्रजा बना रहे हैं.

यूपीएससी की हरकत को तो एक सुर में संसद में खारिज कर दिया गया. ये स्वागत योग्य बात है. अपनी जनता पर हुक्म डंडा चलाने की हमारे कुलीनों को अंग्रेजों से मिली विरासत कायम है. रघुबीर सहाय इसी कुलीनता पर चोट करते हैं. और जब तक आप एक ऐसा हुक्म जारी करने वाला तबका या विभाजन रेखा बनाए रखेंगे तो फिर अन्याय तो होगा ही समाज में, भाषा चाहे कोई भी हो. आज हम यही तो देख रहे हैं. कश्मीर से लेकर केरल तक, नगालैंड से महाराष्ट्र तक और उत्तर प्रदेश से गुजरात तक. अंग्रेजी थोपने की योजना अब ठंडे बस्ते में है, लेकिन ठंडे बस्ते में ही. वो कभी भी बाहर आ सकती है.

फिर भाषा की लड़ाई के अलावा हमें उस तकलीफ को भी नहीं भूलना चाहिए जो समाज में एक ताकतवर एक वंचित पर गिराता है. विडंबना देखिए कि अधिकतर दोनों की भाषा एक ही होती है. एक ही भाषा दो अलग अलग तबकों के पास जाकर अलग व्यवहार क्यों करने लगती है. ताजा लड़ाई में इस विसंगति के बारे में भी सोचना चाहिए. उसे ऐसा कौन बना देता है. ये सवाल तो हम विरोध करने वालों से भी करेंगे.

ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी

संपादनः अनवर जे अशरफ