1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

'ब्लॉग का दौर शानदार दौर'

२० फ़रवरी २०१३

कई विषयों पर ब्लॉग ने बेहतरीन उदाहरण पेश किए, औरतों के सवाल और फिल्मों की समीक्षा को लेकर. डॉयचे वेले के लिए लिखे ब्लॉग में रवीश बताते हैं कि इससे महिलाओं और दलितों को किस तरह अपने विचारों को व्यक्त करने का मौका मिला है.

https://p.dw.com/p/17hpx
तस्वीर: DW

न्यूज चैनलों की समीक्षा और दर्शकों के प्रति समझ बनाने का अभियान भी ब्लॉग ने किया. अंग्रेजी के अखबारों में हिन्दी न्यूज चैनलों की समीक्षा के कालम तो थे, मगर हिन्दी में जनसत्ता को छोड़ आज भी कहीं नहीं हैं. ब्लॉग की दुनिया ने इस कमी को पूरी की. जो चैनल में काम करते थे, वे भी उन ब्लागरों के साथ हो गए जो चैनलों के कंटेंट पर सवाल उठा रहे थे. ब्लॉग की दुनिया से निकली बहस न्यूज रूम में घुस गई. कई चैनलों में ब्लॉग को ब्लॉक किया गया तो कहीं फेसबुक पर अस्थायी तौर पर रोक लगी. कहने का मतलब यह है कि हिन्दी के ब्लॉगर सिर्फ आजाद तकनीक का मजा नहीं ले रहे थे बल्कि लिखने के लिए संघर्ष भी कर रहे थे, जिसका सीधा असर हिन्दी की दुनिया में पहले से मौजूद उनके संबंधों पर भी हो रहा था. कई मामलों में धमकियां भी दी गईं और मामला पुलिस तक गया.

ब्लॉग लेखन ने सबसे ज्यादा सार्थक पहल की है लड़कियों को अभिव्यक्ति का मंच देने में. इस पर अभी विस्तार से अध्ययन किया जाना बाकी है. हिन्दी का पब्लिक स्फीयर पहली बार इतना आजाद इसलिए भी लगा. लड़कियां सिर्फ नारीवादी मुद्दों पर नहीं लिख रही थीं बल्कि वे अपने सपनों से लेकर सामाजिक राजनीतिक अनुभवों को बांटने लगीं. उनका व्यक्तित्व नए तरीके से उभर कर सामने आया जहां वे लिखने बोलने के संसार में खुद से बराबरी हासिल कर रही थीं. कई लड़कियों ने अपनी पहचान बनाई है जो आज तक कायम है. इसी तरह दलित लेखन को साहित्य की धारा से निकाल कर व्यापक पब्लिक स्फीयर में लाने का मौका भी ब्लॉग ने दिया है. एक ऐसे पब्लिक स्फीयर में जहां हर समाज, जाति और तबके के लोग लिख रहे थे, कई लेखकों ने न सिर्फ दलित मुद्दों को जगह दिलाई बल्कि अपनी पहचान एक ऐसे दलित लेखक के रूप में कायम की जो उनके लिए अखबारों और न्यूज़ चैनलों में मुमकिन ही नहीं था. हां वे हंस और कथादेश जैसी साहित्यक पत्रिकाओं में दलित साहित्य जैसा कुछ लिख सकते थे. मगर इससे आगे उनके लिए कुछ नहीं था. अन्ना आंदोलन के दौरान दलितों की भागीदारी के सवाल पर दलित लेखकों ने ऐसा असर डाला कि वो बहस अंग्रेजी के अखबारों और टीवी स्टुडियो तक चली गई.

Themenbild Picture Teaser Generation Change Blog

मैं इस वक्त हिन्दी के ब्लॉग जगत की अच्छाई ही बयां कर रहा हूं क्योंकि अनुपातिक रूप से देखें तो इसकी सार्थकता का पलड़ा भारी है. अभी इसका मूल्यांकन ठीक से होना बाकी है. फौरी तौर पर कई लोगों ने किताबें लिखकर जहां तहां विमोचन करा लिये मगर अकादमिक अध्ययन नहीं हुआ है. ब्लॉग पर लिखी गई बातों और अभिव्यक्तियों की मुखरता और लचरता का सामाजिक राजनीतिक संदर्भों में विश्लेषण होना बाकी है. इतना जरूर कह सकता हूं कि हिन्दी में ब्लॉग लेखन का दौर हिन्दी पब्लिक स्फीयर का एक शानदार दौर है.

ब्लॉगः रवीश कुमार

(यह लेखक के निजी विचार हैं. डॉयचे वेले इनकी जिम्मेदारी नहीं लेता.)