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फोटो का बस एक पल

१९ अगस्त २०१३

कौनसी तस्वीर ऐसी है जो जेहन में रह जाए. या वो जिसे आप भूलना चाहें. क्या ऐसी तस्वीर होगी भला जो कभी न ली जा सकी हो लेकिन उसका होना कौंधता रहे. विश्व फोटो दिवस के मौके पर कुछ बातें तस्वीरों की.

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तस्वीर: imago/imagebroker

विश्व फोटोग्राफी दिवस यूं तो कोई बहुत चर्चित और सुना हुआ दिन नहीं है लेकिन तस्वीरों के शौकीनों, पेशेवरों, कलाकारों और चाहने वालों के लिए ये दिन बहुत खास है. 19 अगस्त दुनिया भर में, 2009 से हर साल तस्वीरों के उत्सव का दिन है. यूं फोटो दिवस मनाने की रवायत दुनिया के कई हिस्सों में और पहले से है. असल में यही वो दिन था जब 1839 में फ्रांस सरकार ने “डेग्येरोटाइप” को दुनिया के सामने पेश किया था. ये पहले कैमरे की पहली प्रस्तुति थी. दुनिया का पहला फोटो. उस खोज के जनक थे जोसेफ निसेफ्योर न्येप्स और लुई याक-मॉन्डे डेग्येख.

तस्वीरों की बात चली है तो सबसे पहले नाम उभरता है ओनरी कार्टिये ब्रेसॉं का. फोटो पत्रकारिता के जनक माने गए बीसवीं सदी के महान फ्रांसीसी छायाकार ने जीवन यथार्थ को अपने कैमरे का विषय बनाया. इसीलिए ब्रेसॉं को आधुनिक दौर का पहला फोटो पत्रकार भी कहा जाता है. वहां लैंडस्केप, फूल, तितली और कुदरत के नजारों से ज्यादा आम मनुष्य की जद्दोजहद उसकी तकलीफों और संघर्षों के क्लिक्स थे. ब्रेसां की ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीरें आज धरोहर हैं और इनमें सौ से ज्यादा दुर्लभ तस्वीरें उनकी प्रसिद्ध किताब “इमैश अ ला सौवेट”(images on the run)में शामिल हैं. अंग्रेजी में “द डिसाइसिव मोमेंट” के नाम से विश्वविख्यात इस किताब में ब्रेसॉँ ने छायाकारी की बारीकियां तो बताई ही हैं, ये भी बताया है कि परंपरा और घिसे पिटे लुभावने सबजेक्ट्स से बाहर निकलकर जीवन अनुभूतियों को क्लिक करना चाहिए. ब्रेसॉं 17वीं सदी के एक लेखक पादरी कार्डिनल द रेत्ज के हवाले से कहते हैं, “इस दुनिया में ऐसा कुछ भी नहीं जिसमें एक निर्णायक पल न हो.”

मास मीडिया के फैलाव और डिजिटलीकरण के जटिल प्रतिस्पर्धी और नित नई खोज के इस दौर में फोटोग्राफी की कला में भी बदलाव आए हैं. कैमरे एक से एक हैं हुनर भी कम नहीं लेकिन इस मायाजाल से बाहर वही तस्वीरें याद रह जाती हैं जिनका मनुष्य जीवन और उसके सुख दुख से रिश्ता बन जाता है. फिर वो एक रिक्शा खींचता मनुष्य हो या झूमते पेड़, कोई फूल या कोई विभीषिका. मिसाल के लिए कुदरत की खूबसूरती बेशक मन बहलाएगी लेकिन याद रहेगा जल प्रलय में तबाही का कोई दृश्य जो एक फोटो में चला गया है अपनी स्थिरता में भी विचलित करता हुआ. कैमरे में जा रहा क्षण गौरतलब होता है. उसे जाते हुए पकड़ना होता है. जैसे शमशेर बहादुर सिंह की एक कविता है, ‘लौट आ ओ फूल की पखुंड़ी फिर फूल पर लग जा.' क्या ऐसा कोई फोटो पल संभव है- अदम्य जिजीविषा और उम्मीद का एक उच्चतम बिंदु. ब्रेसॉं का ‘निर्णायक पल.'

तस्वीरें अपनी ऐंद्रिकता और अपने आत्मिक सौंदर्य के लिए भी याद रह जाती हैं. जैसे रवींद्रनाथ टैगोर का हेलन कैलर के साथ आलिंगनबद्ध फोटो जिसमें नेत्रहीन कैलर टैगौर के चेहरे को स्पर्श कर रही है और दोनों एक दूसरे की आंखों में झांक रहे हैं. अद्भुत फोटो है. ऐसी ही न भूलने वाली कुछ तस्वीरें मर्लिन मुनरो की हैं, लीला नायडू और नरगिस की हैं. जाहिर है फोटो कला के जन्म से लेकर अब तक हजारों लाखों यादगार तस्वीरें होंगी और सबकी अपनी अपनी पसंद होगी.

तस्वीर के बारे में बात करते हुए आप फलसफे की पूरी चादर तान सकते हैं. भला कौनसा पल नहीं होगा जब हम तस्वीर के बारे में न सोचते होंगे. हर दिन हर क्षण तस्वीरें हमारे साथ साए की तरह भटकती रहती हैं. वे अपने समय का आईना होती हैं और परछाई भी. याद एक तस्वीर ही तो है. वे मिट कर भी हमारे जेहन में फिर इकट्ठा हो जाती हैं. फोटो में कैमरे के फोकस और इरादे से बाहर कोई चीज अनायास आ जाती है. कोई अलक्षित कोना. हम चौंक जाते हैं. अरे ये कैसे हुआ. यह एक वैज्ञानिक पहेली है.

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तस्वीर: picture-alliance/AP Photo

कभी हम अपनी बनाई तस्वीर में कैद हो जाते हैं और कभी उससे पीछा छुड़ाना चाहते हैं. कभी नफरत होती है तो कभी मलाल, कोई कठिन वाकया याद आ जाता है, कभी कोफ्त होती है, कभी अपनी गलती समझ आती है, कभी ऊब होती है तो कभी अचानक ठठाकर हंसने का मन करता है. तस्वीर की बात है ही कुछ ऐसी. लैंडस्केप फोटोग्राफी के मास्टर माने गए अमेरिकी छायाकार ऐंसेल एडम्स की सुनिए. कहते हैं- “कैमरे से आप महज फोटो नहीं बनाते हैं. आप इस काम में अपनी देखी समस्त तस्वीरें ले आते हैं, वे किताबें जो आपने पढ़ीं, वो संगीत जो आपने सुना और वे लोग जिन्हें आपने प्यार किया.”

आखिर कौनसी तस्वीर याद रह जाती है. भुलाए नहीं भूलती. क्या वो कोई जलसा है या कोई चीज या कोई दावत या तूफान. वो बर्फ पर पैरों के निशान हैं या कुछ छायाएं. वो यातना है या दुख, तकलीफ, संघर्ष, आकांक्षा या सिर्फ खुशी का पल. वो किसी बच्चे की फोटो है या किसी स्त्री की. क्या वो कुदरत का लैंडस्केप है या किसी अनुभव का. इन तस्वीरों में किन्हें और किस तरह याद रखा जा सकता है. ये निर्भर है उस फोटो की गुणात्मक सामर्थ्य पर और उतना ही हमारे देखने के ढंग पर भी. यानी हम महसूस क्या करते हैं.

ब्रिटिश कला-चिंतक जॉन बर्जर ने तो देखने की कला पर “द वेज ऑफ सीइंग” नाम की किताब ही लिख दी थी. आइन्शटाइन, कास्त्रो, चर्चिल और कैथरीन हेपबर्न जैसी शख्सियतों के अविस्मरणीय पोर्ट्रेट खींचने वाले, बीसवीं सदी के एक उस्ताद छायाकार यूसुफ कार्श का कहना था, “शटर खोलने से पहले देखो और सोचो. दिल और दिमाग ही कैमरे के सच्चे लेंस हैं.”

ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी, देहरादून

संपादनः एन रंजन