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पर्यावरण सुरक्षा में और देरी नहीं

आइरीन क्वेल/एमजे४ नवम्बर २०१४

विश्व पर्यावरण परिषद ने जलवायु परिवर्तन पर अपनी रिपोर्ट के साथ एक्सेलटर दबा दिया है. डॉयचे वेले की पर्यावरण विशेषज्ञ आइरीन क्वेल का कहना है कि तेल और कोयले के इस्तेमाल को रोकने को गंभीरता से लिया जाना चाहिए.

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तस्वीर: picture-alliance/dpa

शायद ही कभी एक ऐसी रिपोर्ट पर इतनी सौदेबाजी हुई हो जिसमें कुछ भी नया न हो. कौन सी बात किस तरह कही जा रही है, यह महत्वपूर्ण था. वाक्यों के तीखेपन और जोर देने के अंदाज पर, जिसके साथ ग्लोबल वॉर्मिंग के कारणों और उसके असर को ठोस कदमों में परिभाषित किया जा सके. यह एक छोटा दस्तावेज है जो विश्व पर्यावरण समझौता करने में सरकारों की मदद करेगा.

पर्यावरण परिवर्तन पर हमारी कुल जानकारी इस बात में कोई संदेह नहीं रहने देती कि ग्लोबल वॉर्मिंग हो रही है और वह इंसानों द्वारा की जा रही है. उसके अभी ही खतरनाक नतीजे हैं और शायद तापमान के बढ़ने को अब रोकना संभव नहीं है. रिपोर्ट में गंभीर, दूरगामी और इंसानों और इको सिस्टम के लिए बदले न जा सकने वाले नतीजों की बात कही गई है. इसके बावजूद बहुत बड़े तेल भंडार वाले देश रिपोर्ट के स्पष्ट बयान को नरम बनाने की कोशिश कर रहे हैं. और यही मुख्य समस्या है. तेल और कोयले पर जारी निर्भरता और तेल और कोयला उद्योग की ताकत.

लक्ष्य साफ है. वैज्ञानिकों ने गणना की है कि धरती के तापमान में खतरनाक वृद्धि को रोकने के लिए हम कितना कार्बन डाय ऑक्साइड वायुमंडल में छोड़ सकते हैं. इस बजट का दो तिहाई हिस्सा हमने खपत कर लिया है. यदि पर्यावरण परिवर्तन को सहने योग्य ढांचे में रखना है तो 2020 तक ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन चरम पर होना चाहिए. लेकिन ऐसा संभव नहीं लगता. 2050 तक दुनिया भर की बिजली की खपत का ज्यादातर हिस्सा अक्षय ऊर्जा से पूरा करना होगा. लेकिन इस लक्ष्य से हम काफी दूर हैं. कार्बन डाय ऑक्साइड जमा करने की तकनीक में प्रगति नहीं होती तो 2100 तक जीवाश्म ऊर्जा का इस्तेमाल रोकना होगा.

Deutsche Welle Irene Quaile-Kersken
पर्यावरण रिपोर्टर आइरीन क्वेलतस्वीर: DW

मुश्किल सहमति

आईपीसीसी की रिपोर्ट के लिए सही शब्दों के चयन की मारामारी ही दिखाती है कि ये रास्ता आसान नहीं है. कुछ देशो को अपना बीजनेस मॉडल पूरी तरह बदलना होगा. खाड़ी के देशों के अलावा रूस जैसे देशों की आमदनी खनिज ऊर्जा बेचकर होती है. लेकिन तेल और कोयला जमीन के अंदर रहना चाहिए. दूसरे देश जीवाश्म ऊर्जा और उन देशों पर निर्भर हैं जिनके पास उनका भंडार है. यूक्रेन का मामला इस तरह की निर्भरता की मुश्किलों को दिखाता है.

खर्च की दलीली के दिन अब लद चुके. इस पर भी विश्व पर्यावरण परिषद के विशेषज्ञों ने अब साफ रुख अपनाया है. ऊर्जा आपूर्ति के ढांचे में बदलाव किफायती समाधान है. जितनी देर होगी खर्च उतना ही बढ़ेगा. कम कार्बन डाय ऑक्साइड वाली बिजली और ऊर्जा कुशलता पर 2030 तक ही सैकड़ों अरब डॉलर का निवेश करना होगा. लेकिन यह फायदेमंद रहेगा. पहले की ही तरह रहना कोई विकल्प नहीं है, क्योंकि इसका मतलब तापमान में कम से कम 4 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होगा. इसके नतीजे तूफान, बाढ़ और शरणार्थियों की लहर होगी.

कुछ हो जरूर

दुनिया के देशों को हाथ पर हाथ धरे बैठने के बदले नया पर्यावरण समझौता तय करना होगा, जिसमें ऊर्जा आपूर्ति के पुनर्गठन और पर्यावरण लक्ष्यों पर अमल की गारंटी हो. इसके लिए सबसे पहले औद्योगिक देशों को शुरुआत करनी होगी. साथ ही जी-20 जैसे प्रभावशाली गुटों को पर्यावरण परिवर्तन को राजनीतिक और आर्थिक मुद्दा बनाना होगा और खनिज ऊर्जा के इस्तेमाल को रोकने पर जोर देना होगा. इस महीने ऑस्ट्रेलिया में होने वाली शिखर भेंट इसका बेहतरीन मौका होगा.

दुनिया की जलवायु की समस्या का हल संयुक्त राष्ट्र की बैठकों में नहीं हो सकता. चाहे घरेलू राजनीति हो या अंतरराष्ट्रीय मंच, बिजली की आपूर्ति के ढांचे को बदलना सबसे बड़ी चुनौती है. धरती और आने वाली पीढ़ियों के हम कर्जदार हैं.