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नीतियों पर अमल में फिसड्डी

७ अप्रैल २०१४

भारत में सरकारी नीतियों के असर को परखती अपनी तरह की पहली रिपोर्ट आई है. इसने उन राज्यों के दावों की भी पोल खोल दी है जो चुनाव से पहले विकास का ढोल पीटते आ रहे हैं. आर्थिक विकास का असर सामाजिक विकास पर नहीं दिखता.

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तस्वीर: imago/imagebroker

चुनाव प्रचार के दौरान गुजरात के विकास मॉडल को काफी उछाला जा रहा है. उसके बरक्स अन्य राज्यों के भी अपने अपने दावे आ गये हैं. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का कहना है कि मॉडल देखना हो तो बंगाल का देखिए. यही बात नीतिश कुमार अपने बिहार के बारे में कहते हैं. यही दावा भूपिंदर हुड्डा का हरियाणा के बारे में है. उधर कर्नाटक, तमिलनाड के दावे भी उतने ही भारीभरकम हैं.

विकास की असली तस्वीर

तो सवाल ये है कि ‘तेरा मॉडल मेरा मॉडल' की होड़ में क्या किसी ने ये देखने की जरूरत महसूस की है कि किस राज्य में विकास की वास्तविक तस्वीर क्या है. दावों की अपनी चमक होती है, बेशक शहरी इलाक़ों में विकास की भी अपनी एक चमक होती है लेकिन जैसे जैसे हम देहातों और कस्बों और चमकीली सड़कों के आगे गड्डमड्ड रास्तों पर बढ़ते हैं तब विकास के ये ढोल फटने लगते हैं.

तब हमारे सामने एक के बाद एक सवाल आते जाते हैं, अरे ये कैसा विकास. कुछ ऐसा ही महसूस होता है नीतियों के असर पर ताजा रिपोर्ट को देखकर. ‘इंडियन पब्लिक पॉलिसी रिपोर्ट 2014' में देश के 26 राज्यों में जारी नीतियों के असर का जायजा लिया गया है. 1981 से 2011 तक के तीन दशक को परखती रिपोर्ट की खासियत यही है कि इसमें एक नया बहुआयामी पैमाना रखा गया जिसे पॉलिसी इफेक्टिवनेस इंडेक्स, पीइआई का नाम दिया गया है. नीतियों के असर के इस सूचकांक के तहत चार सूचक बनाए गए. जीवनयापन की स्थितियां, सामाजिक अवसर(जिसमें शिक्षा, स्वास्थ्य और आय शामिल हैं), कानून का राज (इसमें पुलिसबल की संख्या, अपराध की दर और अदालती मामलों को निपटाने की दर शामिल हैं) और भौतिक बुनियादी ढांचे का विकास (इसमें टॉयलेट की उपलब्धता, बिजली, पानी, सड़क और पक्के मकान शामिल हैं). इन सूचकों के आधार पर ये परखने की कोशिश की गई कि नीतियों का कितना प्रभाव पड़ा है.

Bildergalerie Indien Hygiene
तस्वीर: PRAKASH SINGH/AFP/Getty Images

रिपोर्ट में कई चौंकाने वाली बातें सामने आई. एक तो गुजरात के बारे में ही है. 1981 में उसकी रैंक सातवीं थी, 1991 में 13वीं, 2001 में 11वीं और 2011 में 16वीं रैंक उसे मिली है. कर्नाटक, महाराष्ट्र और तमिलनाड का ग्राफ गुजरात से ऊपर है. लेकिन केरल को देखें तो उसका प्रदर्शन राष्ट्रीय औसत से भी बुरा है, खासकर जीवनयापन, कानून व्यवस्था और बुनियादी ढांचे के मामलों में. सिर्फ सामाजिक अवसर के पैमाने पर उसका रिकॉर्ड बेहतर है. लेकिन पश्चिम बंगाल, असम, मध्य प्रदेश, बिहार और ओडीसा इस इंडेक्स में सबसे निचले पायदानों पर हैं.

बेहतर हैं छोटे राज्य

इस इंडेक्स में पहले पांच स्थानों पर शामिल क्रमवार राज्य हैं, सिक्किम, मिजोरम, गोवा, पंजाब और दिल्ली. 26 राज्यों की लिस्ट में गुजरात का नंबर 16वां है. इस नाते देखा जाए तो ये पाया गया है कि छोटे राज्य बड़े राज्यों की तुलना में बेहतर स्थिति में है. इसमें बुनियादी ढांचे के विकास को छोड़ दें तो बाकी तीन पैमानों पर गुजरात फिसड्डी है. और बुनियादी ढांचे में सुधार का एक संबंध द्रुत औद्योगिकीकरण और कॉरपोरेट अनुकूल माहौल से भी है. लेकिन ये भी हैरानी की बात है कि इस ढांचे की तरक्की अन्य पैमानों के विकास में नहीं दिखती.

तो क्या यह किसी एक राज्य की नहीं, पूरे देश के विकास मॉडल की ही कमजोरी है जहां एक क्षेत्र में विकास का दूसरे क्षेत्र से कोई सकारात्मक संबंध नहीं रह पाता. वे एक दूसरे के सहायक नहीं बन पाते. इसीलिए भारत इस विडबंना को ढोता आ रहा है जहां अमीर और अमीर और गरीब और गरीब होते जा रहे हैं.

Indien Armenküche 03.09.2013 in Neu Delhi
तस्वीर: Reuters

अब सवाल ये है कि जांच में जो चार बातें शामिल की गईं उनमें विकास की स्थिति को लेकर जिम्मेदार कौन है. क्या केंद्र अपनी नीतियों को लागू कराने में विफल रहा है या राज्य ही अकर्मण्य हैं या दोनों ही इसके जिम्मेदार हैं. रिपोर्ट में पाया गया कि पीइआई में अखिल भारतीय स्तर पर तीन दशकों में कुछ सुधार तो हुआ है लेकिन ये बहुत धीमा और मामूली है. देश में गरीबी की दर भौगौलिक तौर पर देखें तो उत्तरप्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार और ओडीशा जैसे राज्यों में बढ़ रही है. और सामाजिक लेवल पर देखें तो शहरी और ग्रामीण इलाकों के एससी और एसटी वर्गों, शहरी मुसलमानों और ग्रामीण इलाकों के ईसाइयों में गरीबी का ग्राफ कम नहीं हुआ है.

एक गैर सरकारी शैक्षणिक और शोध संस्थान की पहल पर सामने आई इस रिपोर्ट के आंकड़े जाहिर हैं राजनैतिक आधार पर भी परखे जाएंगे, उनकी विश्वसनीयता पर भी सवाल उठेंगे और रिपोर्ट को जारी करने की टाइमिंग पर भी. जो भी विवाद या आलोचना आप कर लें लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि रिपोर्ट के आंकड़े भारत की कुल वास्तविकता से मेल खाते हैं. मंगलयान वाले देश की जनता के जीवन में मंगल कब आएगा, कोई नहीं जानता.

ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी

संपादन: महेश झा