1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

उग्रवाद में घिरा पूर्वोत्तर

२२ फ़रवरी २०१२

भारत के पूर्वोत्तर राज्यों और उग्रवाद के बीच आजादी के समय से ही चोली-दामन का साथ रहा है. यह कहना ज्यादा सही होगा कि यह दोनों एक-दूसरे की पहचान बन चुके हैं. उग्रवाद की समस्या पहेली बन कर रह गई है.

https://p.dw.com/p/145s0
तस्वीर: DW/Prabhakar Mani

नगालैंड में कोई डेढ़ दशक से जारी शांति प्रक्रिया इसका जीवंत उदाहरण है. इसी तरह असम में यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट आफ असम यानी अल्फा के साथ बातचीत की प्रक्रिया भी आगे नहीं बढ़ सकी है. ऐसे में यह सवाल उठना लाजमी है कि आखिर इसके समाधान का सही तरीका क्या है और क्या संबंधित पक्ष इसके समाधान के प्रति सचमुच गंभीर हैं ?

उग्रवाद की समस्या

पूर्वोत्तर भारत के सात राज्यों में कोई भी राज्य इस समस्या से अछूता नहीं रहा है. इन तमाम राज्यों में समस्या की मूल वजह यह है कि यह लोग आजादी के इतने सालों बाद भी खुद को भारत का हिस्सा नहीं मानते. पहले इन इलाकों में राजाओं या कबीलों का शासन था. अब भी इन लोगों को लगता है कि भारत में जबरन उनका विलय किया गया है. इसलिए देश के दूसरे राज्यों से जाने वालों को खासकर मणिपुर व नगालैंड जैसे राज्यों में अब भी हिंदुस्तानी कहा जाता है. पहले ज्यादातर राज्य एक साथ थे. बाद में राजनैतिक समीकरणों के चलते उनको अलग राज्य का दर्जा दिया गया. इनके अलावा नार्थ ईस्ट फ्रंटियर एरिया यानी नेफा कहे जाने वाले इलाके को अरुणाचल प्रदेश का नाम दिया गया. उग्रवाद की समस्या ने सबसे पहले म्यामांर से सटे मिजोरम में सिर उठाया था. वहां लालदेंगा की अगुवाई में कोई दो दशक तक हिंसक आंदोलन हुआ था. लेकिन बाद में केंद्र सरकार के साथ समझौते के तहत वहां शांति बहाल हुई और फिलहाल वही राज्य सबसे शांत माना जाता है. मिजोरम की तर्ज पर बाकी राज्यों में भी संप्रभुता की मांग में उग्रवाद ने सिर तो उठाया. लेकिन वहां समाधान का वह तरीका कारगर नहीं हो सका जिसके चलते मिजोरम में स्थायी शांति बहाल हुई थी. मिसाल के तौर पर नगालैंड को गिनाया जा सकता है.

नगा समस्या

नगालैंड में नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड (एनएससीएन) ने उग्रवाद का बिगुल बजाया था. बाद में वह गुट दो हिस्से में बंट गया. नगा संगठन नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड यानी एनएससीएन का इसाक-मुइवा गुट असम, मणिपुर और अरुणाचल प्रदेश के नगा-बहुल इलाकों को मिला कर वृहत्तर नगालैंड के गठन और संप्रभुता की मांग कर रहा है. केंद्र सरकार ने कोई 15 साल पहले संगठन के इसाक-मुइवा गुट के साथ शांति प्रक्रिया शुरू की थी. लेकिन देश-विदेश में दर्जनों बैठकों के बावजूद राज्य की जमीनी हकीकत में कोई बदलाव नहीं आया है. नतीजा यह रहा कि जो शांति प्रक्रिया उग्रवाद से जूझ रहे पूर्वोत्तर राज्यों के लिए एक मिसाल बन सकती थी, वह खुद ही अनिश्चितता के भंवर में फंस गई है. राज्य में सरकार चाहे किसी की भी हो, उग्रवादियों की समानांतर सरकार चलती है. नगा उग्रवादी पड़ोसी अरुणाचल प्रदेश और मणिपुर में भी सक्रिय हैं. नगाबहुल इलाकों को मिला कर ग्रेटर नगालैंड के गठन की मांग के चलते इलाके में अक्सर हिंसा होती रही है जिसकी आंच पड़ोसी राज्यों तक भी पहुंचती है.

मणिपुर

नगालैंड से सटे मणिपुर में उग्रवाद के पनपने की सबसे मजबूत वजह उसका म्यामांर की सीमा से सटा होना है. पूर्वोत्तर में सबसे ज्यादा सक्रिय उग्रवादी गिरोह इसी राज्य में हैं. केंद्र सरकार ने उग्रवाद के दमन के लिए इलाके में सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम तो लागू कर रखा है. लेकिन अब तक इस अधिनियम ने मुश्किलें ही ज्यादा पैदा की हैं. उग्रवादियों की तादाद लगातार बढ़ती ही जा रही है. नगालैंड की तरह यहां कोई शांति प्रक्रिया भी शुरू नहीं की गई है. वरिष्ठ राजनीतिक पर्यवेक्षक के. हेमेंद्र सिंह सवाल करते हैं, ‘आखिर शांति प्रक्रिया किसके साथ शुरू करे सरकार ? असम और नगालैंड में तो उग्रवादी संगठनों की तादाद कम है और उनके साथ बातचीत के जरिए शांति बहाल करने की कोशिश हो सकती है. लेकिन यहां कम से कम तीन दर्जन गुट हैं. उन सबको शांति प्रक्रिया के लिए एक छतरी के नीचे लाना असंभव है. ऐसे में मणिपुर से उग्रवाद का खात्मा मुश्किल लगता है.' एक मोटे अनुमान के मुताबिक, इस राज्य में उग्रवाद के सिर उठाने के बाद अब तक कोई दस हजार लोग मारे जा चुके हैं. लेकिन गैर-सरकारी आंकड़ा इससे कई गुना ज्यादा है. दरअसल, मणिपुर लगभग दो हजार वर्षों तक एक स्वाधीन राज्य रहा है. वर्ष 1947 में ब्रिटिश शासकों की वापसी के बाद यह आजाद हो गया था. लेकिन दो साल बाद ही इसका भारत में विलय हो गया. मणिपुर के लोगों की दलील है कि उनके राजा से जबरन विलय के समझौते पर हस्ताक्षर कराए गए थे.

असम

असम में भी सरकार लंबे अरसे से अल्फा के साथ शांति प्रक्रिया शुरू करने का प्रयास कर रही है. इस मुद्दे पर संगठन दो-फाड़ हो चुका है. अध्यक्ष अरविंद राजखोवा की अगुवाई वाला गुट इसके पक्ष में है. लेकिन संगठन के सैन्य कमांडर परेश बरुआ इसके सख्त खिलाफ है. कई मध्यस्थ समितियों के गठन और कभी हां, कभी ना के बावजूद अब तक इस मामले में महज इतनी ही प्रगति हुई है कि राजखोवा ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ एक बार मुलाकात की है. उसके बाद फिर सब कुछ ठप है. मुख्यमंत्री तरुण गोगोई कहते हैं, ‘सरकार इन उग्रवादियों को समाज की मुख्यधारा में शामिल करना चाहती है. हमने कई और संगठनों के साथ भी शांति प्रक्रिया की पहल की है. उम्मीद है कि इसके सकारात्मक नतीजे सामने आएंगे.' उनका दावा है कि अल्फा के साथ जल्दी ही औपचारिक तौर पर बातचीत शुरू होगी. गोगोई का कहना है कि अल्फा के साथ बातचीत के लिए सरकार के दरवाजे खुले हैं. लेकिन वह राज्य में हिंसा के किसी प्रयास का कड़ाई से मुकाबला करेगी. राजनैतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि अगर यह प्रक्रिया जल्दी ही आगे नहीं बढ़ी तो बातचीत समर्थक गुट के सदस्य परेश बरुआ के खेमे में लौट सकते हैं.

हाल में असम के दौरे पर गए पूर्व केंद्रीय गृह सचिव जी.के.पिल्लै, जो शांति प्रक्रिया शुरू करने में अहम भूमिका निभाते रहे हैं, कहते हैं, ‘अल्फा के बातचीत विरोधी नेताओं को चीन का भी समर्थन हासिल है. हालांकि चीन इसका खंडन करता रहा है.' पिल्लै का कहना था कि पूर्वोत्तर के उग्रवादी गुटों को म्यामांर के जंगलों से खदेड़ने के लिए उस देश की सेना को मजबूत करना जरूरी है. म्यामांर की सेना इन संगठनों के खिलाफ अभियान चलाने की इच्छुक नहीं है. लेकिन उसके पास वैसी ताकत भी नहीं है. नगा शांति प्रक्रिया में केंद्र के मध्यस्थ की भूमा निभा चुके पिल्लै कहते हैं, असम के लोग अब शांति व विकास चाहते हैं. इसलिए अल्फा के प्रति लोगों का समर्थन घट रहा है.

Geschäftsleute mit Fragezeichen
यही है वह 'सवाल का निशान' जिसे आप तलाश रहे हैं. इसकी तारीख 22.02 और कोड 7678 हमें भेज दीजिए ईमेल के जरिए hindi@dw.de पर या फिर एसएमएस करें +91 9967354007 पर.तस्वीर: Fotolia/Yuri Arcurs

अरुणाचल प्रदेश और मेघालय

अरुणाचल प्रदेश अपेक्षाकृत शांत है. लेकिन उसके सीमावर्ती तीन जिलों में नगा उग्रवादी सक्रिय हैं. राज्य में अपहरण और हत्या की खबरें मिलती रहती हैं. इसी तरह, मेघालय में स्थानीय आदिवासी उग्रवादी संगठनों की गतिविधियां लगातार बढ़ रही हैं. बांग्लादेश के साथ सटी लंबी सीमा इन उग्रवादियों की शरणस्थली बन गई है. जिस मेघालय की गिनती पहले पूर्वोत्तर के सबसे शांत राज्य में होती थी, वह अब अशांति की राह पर तेजी से बढ़ रहा है.

आजीविका बना उग्रवाद

आखिर इलाके में उग्रवाद की समस्या का समाधान क्या है ? राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर होने के बावजूद इलाके का समुचित विकास नहीं हो सका है. अरुणाचल प्रदेश और असम की नदियों पर अगर पनबिजली परियोजनाएं लगाई जाएं तो वहां से देश के आधे हिस्से को बिजली की सप्लाई की जा सकती है. लेकिन अब तक इसके लिए बनी तमाम योजनाएं फाइलों में पड़ी धूल फांक रही हैं. इसके अलावा इलाके में पर्यटन को बड़े पैमाने पर बढ़ावा दिया जा सकता था. उग्रवादी संगठनों की दलील है कि विकास नहीं होने की वजह से इलाके में रोजगार के मौके नहीं हैं. नतीजतन ज्यादातर युवक इन संगठनों में शामिल हो जाते हैं. मणिपुर के पत्रकार पी चूड़ामणि सिंह कहते हैं कि दरअसल, उग्रवाद इस इलाके में आजीविका का प्रमुख साधन बन गया है. सरकार विकास नहीं होने के लिए उग्रवाद को जिम्मेदार ठहराती है और उग्रवादी सरकार को. पहले अंडा या पहले मुर्गी की तर्ज पर आरोप-प्रत्यारोप का यह दौर अब तक जस का तस है. पर्यवेक्षकों का कहना है कि इलाके में कोई भी नहीं चाहता कि उग्रवाद की यह समस्या सिरे से खत्म हो जाए. उग्रवादी संगठनों से लेकर नेता सब इस समस्या से फायदा उठाने में लगे हुए हैं. ऐसे में पूर्वोत्तर में उग्रवाद की समस्या के हल होने के कोई आसार नहीं नजर आ रहे हैं.

रिपोर्टः प्रभाकर, कोलकाता

संपादनः आभा एम